पवन पराशर

कोलकाता के इतिहास में हिंदीभाषी समाज के अवदान को नजरंदाज करना मुमकिन नहीं है। स्थापना काल से ही राजस्थान, हरियाणा, बिहार , उत्तर प्रदेश आदि प्रदेशों से आए प्रवासी लोगों ने यहां व्यापार-वाणिज्य और सेवा को अपनी जीविका का साधन बनाया और अपनी कमाई के एक हिस्से को समाज कल्याण में उत्सर्ग ऐसे प्रतिष्ठान बनाए जिनकी बदौलत इस समाज की गरिमा बढ़ी, सम्मान बढ़ा और स्थानीय समाज के बीच ये समरस होकर जीने का गौरव हासिल कर सके। मारवाड़ी समाज व्यापार में अग्रणी रहा तो बिहार, उत्तर प्रदेश आदि क्षेत्रों से आए लोग सेवक के रूप में उनके साथ रहे।

व्यापार-वाणिज्य की घाटी बड़ाबाजार और संलग्न इलाकों में मारवाड़ी समाजसेवियों के द्वारा स्थापित ऐसे प्रतिष्ठानों की भरमार है जिनमें अस्पताल, विद्यालय, धर्मशाला और दातव्य संस्थान प्रमुख हैं।

कहने को भारत पांच ट्रिलियन इकोनॉमी की ओर तेजी से बढ़ने वाले मुल्कों में शुमार है लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि कभी आय में राष्ट्रीय क्षितिज पर चर्चित समाज की नई पीढ़ी अपने पुरखों द्वारा स्थापित संस्थानों को बेचकर, उसका व्यवसायीकरण करके घर चलाने की मानसिकता से ग्रस्त है। एक के बाद एक संस्थान अपनी मूल पहचान खोते जा रहे हैं। मारवाड़ी रिलीफ सोसायटी भी इनमें से एक है।

साल 1913 में बड़ाबाजार के उदारमना सेठों की सदाशयता और जनकल्याणकारी भावनाओं से निर्मित इस प्रतिष्ठान को नेस्तनाबूद करने में बाहरी तत्वों से अधिक इसके रक्षकों का हाथ है। संचालन समिति में रहकर अस्पताल की कमाई से अपना घर भरने की क्षुद्र मानसिकता ने इस ऐतिहासिक प्रतिष्ठान की नींव हिला दी है। आज स्थिति यह है कि अपना दबदबा कायम रखने को बेताब समाज भक्षकों ने गुंडे-मवालियों को प्रश्रय देकर अपना आधिपत्य जमाए रखने का रास्ता अपना लिया है।

गंभीर विश्लेषण करें तो पाएंगे कि व्यापार – वाणिज्य से जुड़े लोगों ने जान-माल की सुरक्षा के लिए जाने-अनजाने छोटे-बड़े अपराधियों को संरक्षण देना शुरू किया था और आज वही अपराधी बड़ाबाजार की राजनीति और सामाजिक गतिविधियों के संचालक बन बैठे हैं। कोई भी काम बिना इनको चढ़ावा दिये निर्विघ्न तरीके से संपादित करना संभव नहीं है।

पिछले वर्षों में बड़ाबाजार में व्यवसाय का परिमाण तो घटा है लेकिन हवा-हवाई बातें करके अपनी महत्ता साबित करने की प्रवणता बढ़ी है। प्रचार-प्रसार के युग में दस हजार की सामग्री वितरित करके लाख रूपये का विज्ञापन छपवाने वाले तथाकथित सेठों की फौज खड़ी हुई है जिनका मकसद औरों के दान से अपना कल्याण करना है।

मारवाड़ी रिलीफ सोसायटी में अधिकारियों और कर्मचारियों के बीच बढ़ता वैमनस्य, कतिपय अधिकारियों की धनलिप्सा एवं रोगियों की भर्ती से लेकर दवा, भोजन, रख-रखाव में कमीशन तय करने की संकीर्णता का परिणाम है। दान पर चलने वाले प्रतिष्ठान में कमाई की बंदरबांट ही सारे झगड़ों की जड़ है।

मारवाड़ी रिलीफ सोसायटी के पास जितनी संपत्ति है अगर उसका समुचित उपयोग किया जाय तो इस अस्पताल को आत्मनिर्भर करना मुश्किल काम नहीं है लेकिन उन संपत्तियों को औने-पौने दाम में बेचकर, भाड़ा लगाकर उनकी उपयोगिता को संकुचित किया गया है। “हाथी के दांत दिखाने को और खाने को और” की तर्ज पर मारवाड़ी रिलीफ सोसायटी की आय और व्यय का संतुलन बनाए रखने के पीछे एक विशेष वर्ग की अधिकार लिप्सा और कमाई का बीजगणित है। एक अनुमान के मुताबिक लगभग तीन स
हजार करोड़ की संपत्ति का स्वामी सोसायटी दान की रकम पर आश्रित है।

बड़ाबाजार और आस-पास के अंचलों में रहने वाले भली-भांति जानते हैं कि विगत दो वर्षों में मारवाड़ी रिलीफ सोसायटी की गतिविधियों में जो क्रांतिकारी बदलाव आया है वह सचिव प्रहलाद राय गोयनका की व्यक्तिगत मेहनत और समर्पण का नतीजा है। व्यक्तिगत एवं बड़े प्रतिष्ठानों से अनुदान की व्यवस्था करके सोसायटी के सभी विभागों का कायाकल्प किया गया है। साफ-सफाई और रख-रखाव की स्थिति में गुणात्मक सुधार हुआ है।

श्री गोयनका की परिचिति एक सेवाभावी उद्यमी की है। वे गंगा मिशन, सुरभि गौशाला सहित अन्य कई संस्थाओं में भी समान रूप से सक्रिय हैं और सभी जगह उनके समर्पण भाव की प्रशंसा होती है। सोसायटी में भी व्यक्तिगत अनुदान देने में वे अग्रणी रहे हैं।

सोसायटी की खस्ताहाली को बेहतरीन बनाने के इस‌ प्रयास का ही नतीजा है कि आज सारे स्वार्थी तत्व एकजुट होकर तीन दशक से अंगद की तरह पांव जमाये कमीशनखोर अधिकारियों को पुनः स्थापित करने में जी-जान से जुट गए हैं ताकि उनकी गुंडागर्दी और रंगरेलियों का क्रम बदस्तूर जारी रहे।

केवल मारवाड़ी रिलीफ सोसायटी में ही कलह की स्थिति है बात ऐसी नहीं है। पिछले दो-तीन दशकों में बड़ाबाजार की अधिकांश सामाजिक संस्थाओं की यही दुर्गति की गई है और सबके मूल में चंद सफेदपोश तथाकथित परजीवी समाजसेवी बने अपराधी तत्व ही कारक रहे हैं।

यह‌ आम समाज का दायित्व है कि लामबंद होकर पुरखों द्वारा सेवा की भावना से स्थापित ऐसे ऐतिहासिक संस्थान को घुन की तरह खोखला कर रहे सफेदपोश शैतानों से बचाने का उपक्रम करें अन्यथा एक दिन ऐसे गौरवशाली संस्थान की जगह भी कोई मॉल या व्यवसायिक टॉवर नजर आएगा क्योंकि सेवा की आड़ में मेवा लूटने वाले समाज में प्रतिष्ठित और सम्मानित हैं।