
नई दिल्ली, 25 जून । चांदनी चौक से भाजपा सांसद प्रवीण खंडेलवाल ने आपातकाल के 50 साल पूरे होने के मौके पर कहा कि तानाशाहों की सरकार सुनो- इस गीत को याद करते ही देश में 1975 से 1977 का आपातकाल का वो काला समय स्मरण हो आता है, जब जेलों में ठूंसे गए लोग दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में तिहाड़ जेल से कैदियों की बस में सुनवाई के लिए आते थे और उनके हाथों में हथकड़ी बंधी होती थी। उन्होंने बताया कि इस गीत की हर पंक्ति, हर स्वर, आज भी हमारे सीने में ज्वालामुखी बनकर धधक रही है। ये बंदी कोई क़ातिल या मुजरिम नहीं थे, बल्कि भारत में लोकतंत्र की हत्या करने वाली तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ आवाज उठाने का साहस करने वाले लोग थे, जिन्हें हथकड़ियां पहना कर तिहाड़ जेल से तीस हजारी कोर्ट लाया जाता था।
खंडेलवाल ने हिन्दुस्थान समाचार के साथ बातचीत में कहा कि उन्होंने इस तरह के अनेक दृश्यों को अपनी आंखों से देखा था क्योंकि उनके ताऊजी दिवंगत सतीश चंद्र खंडेलवाल और पिता विजय खंडेलवाल भी आपातकाल में बंदी के तौर पर दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद रहे थे। उनका परिवार दिल्ली के हजारों आपातकाल के सताए हुए परिवारों में से एक है। खंडेलवाल ने कहा कि आज से 50 साल पहले आज ही के दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया था। यह वह दिन था जब संविधान को बेदर्दी से कुचला गया, जनता की आवाज को दबा दिया गया।
खंडेलवाल ने कहा कि लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए आपातकाल की यादों को ज़िंदा रखना जरूरी है।
उन्होंने आपातकाल को याद करते हुए कहा कि चांदनी चौक और पुरानी दिल्ली ने इस तानाशाही की सबसे भयानक कीमत चुकाई। कुछ ही कदम दूर तुर्कमान गेट की गलियों में निर्दोषों को गोलियों से भून दिया गया। घरों को बुलडोज़रों से रौंदा गया। महिलाओं और बच्चों को सड़कों पर गिराया गया और पूरे इलाके को खामोशी से तबाह कर दिया गया। किसी को बोलने की आजादी नहीं थी और जो बोला उसको बंदूकों के बटों से बुरी तरह मारा गया। यह तो सत्ता की क्रूरता का नग्नतम स्वरूप था। तुर्कमान गेट कोई गली नहीं, यह लोकतंत्र की मज़ार है, जहां आज भी संविधान सर झुकाकर खड़ा है।
खंडेलवाल ने बताया कि लोगों से कहा गया कि यदि जीना है तो नसबंदी करवाओ। सड़क चलते आदमी को पकड़ कर नसबंदी कैम्प में उसकी जबरन नसबंदी कर दी गई। विरोध करने पर गोलियां चलीं। कहा जाता है कि रात को शव ट्रकों में भरकर रिंग रोड की ओर फेंके गए। घरों के चूल्हे तक नहीं बचे। हजारों लोग उखाड़ कर बाहर फेंक दिए गए। उनकी चीखों की कोई गवाही नहीं थी, और न कोई सुनवाई।… न अपील है, न दलील है, हो रही शराफत जलील है- आपातकाल के बंदियों द्वारा उस समय गाई जाने वाली ये दो लाइन ही उन हालातों को बयान करने के लिए काफ़ी है।
खंडेलवाल ने कहा कि जिन्होंने यह आदेश दिए वे आज भी इतिहास के कटघरे में सजा से बचे हुए हैं और उनके वंशज संविधान और लोकतंत्र पर ज्ञान देते हैं। शर्मनाक है कि कांग्रेस ने इस क्रूरता को कभी स्वीकार नहीं किया। न कोई माफी, न कोई जांच। यह लोकतंत्र नहीं था, यह सत्ता की सनक थी।
उन्होंने बताया कि तुर्कमान गेट सिर्फ एक घटना नहीं थी। यह उन लोगों की चिता थी जिनकी गलती बस इतनी थी कि वे गरीब थे, आवाज़ उठाते थे और अपने घर बचाना चाहते थे। आज 50 वर्ष बाद भी, कांग्रेस उस खून से सनी मिट्टी को भूल चुकी है, लेकिन हम नहीं भूलेंगे। न तुर्कमान गेट को, न आपातकाल को, न उन मासूमों की आखिरी चीख को, क्योंकि लोकतंत्र को बचाने के लिए यादों को ज़िंदा रखना जरूरी है ।