अंतरराष्ट्रीय रामस्नेही सम्प्रदाय के प्रख्यात कथा व्यास संत दिग्विजय राम महाराज से विशेष बातचीत
-कौशल मूंदड़ा-
उदयपुर। अंतरराष्ट्रीय रामस्नेही सम्प्रदाय के विख्यात संत दिग्विजय राम कहते हैं कि धर्मगुरुओं को महज मंदिरों का पुजारी समझने की भूल नहीं की जानी चाहिए, हमारे संत चलते-फिरते ग्रंथालय हैं, देश के सनातनी संस्कारों के साथ देश की अर्थव्यवस्था की प्रगति के लिए भी धर्मगुरुओं का दृष्टिकोण महत्वपूर्ण साबित हो सकता है।
अपनी निर्मल और मधुर वाणी में देश-विदेश में भागवत पुराण, नानी बाई का मायरा जैसी कथाओं से सनातनी संस्कारों की अलख जगा रहे संत दिग्विजय राम महाराज ने अपने पलाना खुर्द उदयपुर प्रवास के दौरान विशेष बातचीत में देश की अर्थव्यवस्था को लेकर भी अपना मत रखा। उन्होंने कहा कि हाल ही कॉन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) ने आंकलन दिया है कि देश में हाल ही मनाए गए दीपोत्सव पर 25 लाख करोड़ का कारोबार हुआ है। इसे सनातनी अर्थव्यवस्था का नाम दिया गया है। ऐसे में हम यह स्पष्ट कह सकते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा सनातन से जुड़ा है। यह तो सिर्फ दीपोत्सव की बात है, लेकिन तीर्थाटन तो वर्षभर चलता है, उसका आंकलन भी शामिल करेंगे तो यह आंकड़ा और भी बड़ा होगा।
हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि तीर्थाटन और पर्यटन की भी परिभाषा को हमें स्पष्ट करना होगा। जब तीरथ में पर्यटन का समावेश हो जाता है, तब भक्ति में भोग का दंश लग जाता है। हमें भक्ति और भोग को अलग-अलग रखना होगा। इस दिशा में सामाजिक जागरूकता आ रही है, कई तीर्थ स्थलों पर परिधान से लेकर संबंधित स्थलों की परम्परा व मर्यादा से जुड़े मामलों में स्पष्ट और कठोर निर्णय लिए गए हैं।
संत दिग्विजय राम ने कहा कि जब हम अर्थव्यवस्था की बात करते हैं तो हमारे देश के गांव भी उसमें शामिल होते हैं। उन्होंने जोड़ा कि आज गांवों की अर्थव्यवस्था सामान्य विकास के मानबिन्दुओं से काफी दूर है। लेकिन, उन्होंने इसके साथ जोड़ा कि गांवों की अर्थव्यवस्था में भी सनातनी परम्पराओं का बड़ा योगदान है। प्रत्यक्ष उदाहरण देते हुए कहा कि एक छोटे से गांव पलाना खुर्द में लाखों खर्च करके कथा का आयोजन किया जाना भी अर्थव्यवस्था का हिस्सा क्यों नहीं माना जाना चाहिए। मुण्डन, विवाह, विवाह पूर्व व पश्चात की रस्में आदि परम्पराओं का निर्वहन अपने गांव में ही करने की सोच गांव की सनातनी अर्थव्यवस्था का ही हिस्सा माना जाना चाहिए।
संत दिग्विजय राम ने कहा कि महात्मा गांधी ने भी कहा था कि भारत गांवों में बसता है, लेकिन आज गांवों में विकास कहां है। शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार, रोजगार तक की आवश्यकताएं तो बाद की बात हैं, बिजली, पानी, सड़क के मामले में भी गांव में रहने वाले का मन क्या कहता है, उससे पूछेंगे तो पता चल जाएगा। उन्होंने गांवों को शहरों के रूप में विकसित करने की गति को बेहद कम बताते हुए कहा कि इसके लिए गांवों में बसने वाले समाजों को ही प्रोत्साहित करना होगा। गांव की प्रतिभाओं को उनकी आवश्यकता के अनुरूप संसाधन उपलब्ध कराने होंगे। गांवों तक आने-जाने के संसाधनों पर ही चर्चा ही लम्बी जा सकती है। क्या गांव वालों के सपने नहीं होते।
संत ने यह भी जोड़ा कि गांव वाले कब तक शहर में शरण लेते रहेंगे। गांव वालों को स्वयं भी पुरुषार्थी होना होगा। उन्होंने बताया कि गांवों में ही धार्मिक प्रवास के दौरान उन्होंने कुछ उदाहरण देखे हैं, जहां गांव की प्रतिभाओं ने तकनीक का उपयोग करते हुए गांव को ही अपनी कर्मभूमि बनाया और कुछ समय के संघर्ष के बाद आज वे संतोषजनक स्थिति में हैं।
उन्होंने कहा कि पलाना खुर्द जैसे गांव में ही 65 चार्टर्ड अकाउंटेंट की जानकारी उनके पास आई है। उनके सपनों ने ही उन्हें इस लक्ष्य तक पहुंचाया होगा। स्पष्ट है कि उन्हें उच्च अध्ययन के लिए गांव में सुविधा नहीं मिली होगी, लेकिन अब यह पीढ़ी गांव में नहीं ठहर सकती, यहां उनका रोजगार नहीं है, लेकिन धार्मिक परम्पराओं के निर्वहन के लिए यहां एकत्र आना उनकी अपनी जन्मभूमि के प्रति श्रद्धा को प्रदर्शित करता है। आज यह युवा पीढ़ी गांव को भी एक विकसित शहर की तरह देखना चाहती है, बस दिशा मिलने की देर है और यह दिशा सरकार की नीतियां ही तय कर सकती हैं।
संत प्रवर ने कहा कि कौन है जो अपना गांव, अपने घर, अपने जन्मस्थान को सूना छोड़ना चाहता है। कोरोना के कष्टदायी काल ने तो सभी को गांव में ला ही दिया था और कई ने तो फिर गांव में ही अपनी गुजर-बसर देख ली। लेकिन, आज परिस्थितियां यह हो गई हैं कि शहरवाला तो गांव का ही व्यक्ति अपनी बेटी को गांव में नहीं ब्याहना चाहता। यदि समय रहते इन व्यवस्थाओं को नहीं संभाला गया तो परिस्थितियां और भी विकट हो जाएंगी, अभी तो गांवों के घरों में ताला लगा हुआ दिखाई देता है, बाद में खण्डहर होते मकान नजर आएंगे।
बातचीत में संत प्रवर ने कहा कि तुलनात्मक रूप से दस साल पहले और आज के युवा में काफी अंतर आया है। युवाओं में अपने सनातनी संस्कारों के प्रति जागरूकता आई है। लेकिन, एक बड़ी संख्या आज भी भौतिकवाद के चंगुल में है। इसका उदाहरण किशोरों से लेकर युवाओं और बड़े-बड़े नामचीन लोगों की आत्महत्या की घटनाएं हैं। छोटी-छोटी परेशानियां आने पर ही युवा अवसाद में आ रहे हैं। इसका सीधा सरल उपाय है अध्यात्म से जुड़ाव। इसके लिए युवा को ‘पहले इस्तेमाल-फिर विश्वास’ के बजाय ‘पहले विश्वास-फिर इस्तेमाल’ की दिशा पकड़नी होगी। अध्यात्म में प्रवेश का पहला चरण विश्वास है, इस्तेमाल नहीं। संत समाज में भी युवा चेहरों के नजर आने के सवाल पर उन्होंने कहा कि जब भारतवर्ष में युवा नजर आ रहे हैं तब संत समाज अछूता कैसे रह सकता है। संत परम्परा भी सतत है। आज समाज को सनातनी संस्कारों की दिशा में जागरूक करने की कमान युवा संतों के पास दिखाई दे रही है।
अध्यात्म और विज्ञान विषय पर चर्चा करते हुए उन्होंने भारतीय प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था को सशक्त करने की आवश्यकता जताई। उन्होंने कहा कि सनातन धर्म के सभी संस्कार विज्ञान की कसौटी पर खरे उतरते हैं, बस हम उस दृष्टि से अपने बच्चों को समझाते नहीं। भारत की शिक्षा पद्धति ऐसी कर दी गई जिसमें हमारे प्राचीन ग्रंथों वेद-उपनिषदों को कहानी-मिथक कह दिया गया, जबकि वे हमारी ज्ञान परम्परा के स्रोत हैं। उन्हें आज स्रोत के रूप में पुनर्स्थापित करना होगा।
देश में चल रही धर्म और राजनीति की बहस पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि नीति का अर्थ ही धर्म है। हमारे इतिहास में भी राजव्यवस्था में धर्मदंड-न्यायदंड जैसी व्यवस्थाएं थीं। यदि राजा किसी निर्णय में स्वयं को असमंजस में महसूस करता था, तब धर्मगुरुओं की सभा की शरण लेता था। इसलिए राजनीति में धर्म स्वतः निहित है, लेकिन धर्म में राजनीति नहीं होनी चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)