
कोलकाता, 5 जून ।
विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर पूरी दुनिया प्लास्टिक प्रदूषण को खत्म करने की बात कर रही है, लेकिन कोलकाता जैसे महानगर में अब भी प्लास्टिक कचरा निपटाने की कोई संगठित व्यवस्था नहीं है। हर दिन शहर में हजारों टन ठोस कचरे के साथ-साथ भारी मात्रा में प्लास्टिक भी जमा हो रहा है, लेकिन इसे अलग करने, रीसाइक्लिंग करने या वैज्ञानिक तरीके से निपटाने के कोई कारगर इंतज़ाम नहीं हैं।
संयुक्त राष्ट्र ने 1973 में 5 जून को पर्यावरण जागरूकता के लिए विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाने का आह्वान किया था, और इस वर्ष का थीम है: “प्लास्टिक प्रदूषण का अंत”। यह विषय पहले भी 2018, 2023 और 2025 में दोहराया गया है, जिससे इसकी गंभीरता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। इस बार मेज़बान देश दक्षिण कोरिया है, जहां जेजु आइलैंड नामक एक ‘ज़ीरो प्लास्टिक ज़ोन’ में केंद्रीय कार्यक्रम हो रहा है।
भारत ने 2018 में जब इस दिवस की मेज़बानी की थी, तब का नारा भी “बीट प्लास्टिक पॉल्यूशन” था। भारत सरकार ने तब यह संकल्प लिया था कि 2022 तक देश को सिंगल यूज़ प्लास्टिक से मुक्त कर दिया जाएगा। इसके तहत 2023 की शुरुआत से देशभर में 120 माइक्रोन से पतली प्लास्टिक के उत्पादन, भंडारण, बिक्री और उपयोग पर प्रतिबंध लगाया गया।
लेकिन ज़मीनी हालात कुछ और ही कहानी कहते हैं। कोलकाता और पश्चिम बंगाल में प्लास्टिक प्रतिबंध का पालन न के बराबर हो रहा है। आंकड़ों के मुताबिक राज्य में हर दिन करीब 13,469 टन ठोस कचरा पैदा होता है, जिसमें करीब 10 प्रतिशत प्लास्टिक होता है। यानी रोज़ाना 1,300 टन से ज्यादा प्लास्टिक कचरा नष्ट करने की ज़िम्मेदारी है, लेकिन इसके निस्तारण की कोई ठोस व्यवस्था नहीं है।
सीएसई (Centre for Science and Environment) की 2019-20 की एक रिपोर्ट के अनुसार, पश्चिम बंगाल में हर साल करीब 3 लाख टन प्लास्टिक कचरा पैदा होता है। इसमें से केवल 13 प्रतिशत को ही रीसाइकिल किया जाता है, और 20 प्रतिशत को कानूनी ढंग से जलाया जाता है। शेष प्लास्टिक या तो अवैध रूप से जलाया जाता है या बेतरतीब फेंक दिया जाता है, जिससे जल, थल और वायु तीनों प्रदूषित हो रहे हैं।
कोलकाता में सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि यहां प्लास्टिक संग्रहण के लिए कोई संगठित ढांचा मौजूद नहीं है। राज्य में केवल दो-एक यूनिट हैं, और पूरा काम रैगपिकर्स यानी मलबा चुनने वालों पर निर्भर है। ये हज़ारों लोग अनौपचारिक रूप से प्लास्टिक इकट्ठा करते हैं, लेकिन इन्हें न तो कोई सरकारी मान्यता मिली है और न ही कोई स्वास्थ्य या सामाजिक सुरक्षा। जबकि देश के अन्य कई राज्यों ने इन रैगपिकर्स को अधिकार और सुविधाएं दी हैं।
राज्य में प्लास्टिक उत्पादन की करीब 1,200 फैक्ट्रियां काम कर रही हैं। इनके खिलाफ कार्रवाई की ज़िम्मेदारी जिन सरकारी एजेंसियों की है, वे या तो लापरवाह हैं या मूकदर्शक बनी हुई हैं। यही वजह है कि प्लास्टिक प्रतिबंध सिर्फ कानून की किताबों में रह गया है, जबकि असल ज़िंदगी में शहर की नदियों, नालों, मैदानों और गलियों में प्लास्टिक का अंबार फैला है।
विडंबना यह है कि यही एजेंसियां पर्यावरण दिवस पर प्लास्टिक मुक्त समाज की अपील करती हैं, लेकिन न खुद कोई पहल करती हैं, न ही ज़मीनी बदलाव लाने की दिशा में ठोस काम हो रहा है।