
कोलकाता, 31 अगस्त। पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज द्वारा कथाकार अमरकांत की जन्मशती के अवसर पर आयोजित संगोष्ठी में उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘दोपहर का भोजन और आज का भारत’ विषय पर गंभीर विमर्श हुआ। मुंशी प्रेमचंद लाइब्रेरी, कोलकाता में 30 अगस्त को साहित्य संस्कृति उप समिति के तत्वावधान में हुई इस संगोष्ठी की अध्यक्षता साहित्यकार केशव भट्टड़ ने की।
केशव भट्टड़ ने कहा कि “अमरकांत प्रेमचंद की परंपरा को मजबूत करने वाले कथाकार हैं। ‘दोपहर का भोजन’ कहानी में आज़ादी के बाद के भारत की भुखमरी और बेरोजगारी के यथार्थ का विस्फोट है। कहानी का कथानक बिना किसी सजावट के शब्दचित्र की तरह सामने आता है।”
उन्होंने बताया कि कहानी में परिवार के मुखिया की नौकरी छूटने के बाद महज़ डेढ़ महीने में घर के हालात एक समय के भोजन के संघर्ष तक पहुँच जाता है। परिवार संवादहीनता और कुपोषण का शिकार है। भट्टड़ ने वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जोड़ते हुए कहा कि जब देश में राम का भव्य मंदिर बन गया है, तब भी करोड़ों नौजवानों के पास रोजगार नहीं है। ‘मिड डे मील’ योजना इसी कहानी की प्रासंगिकता को रेखांकित करती है।
वक्ता राजीव पांडेय ने कहा कि यह कहानी भोजन के साथ भूख की कहानी भी है। उन्होंने कहा “माँ झूठ बोलकर परिवार को जोड़े रखती है। आज़ादी के 78 साल बाद भी 80 करोड़ लोग सरकारी राशन पर निर्भर हैं। भुखमरी सूचकांक में भारत 105वें स्थान पर है, नेपाल और श्रीलंका से भी पीछे। कहानी के 70 साल बाद भी स्थिति और भयावह है।”
उन्होंने असमानता पर चिंता जताई कि देश के 10% लोगों के पास आधी से ज्यादा संपत्ति है, जबकि करोड़ों लोग भूख से जूझ रहे हैं।
नरेंद्र पोद्दार ने कहा कि आज़ादी के बाद गरीबी से मुक्ति की उम्मीद थी, लेकिन आज भी करोड़ों परिवार भूख से जूझ रहे हैं। कहानी में स्पष्ट दिखता है कि परिवार के हिस्से में अंत में केवल आधी रोटी रह जाती है। उन्होंने बताया कि आज भी लगभग 19 करोड़ परिवार तीन वक्त का भोजन पाने से वंचित हैं।
संचालन कर रहे अभिषेक कोहार ने कहा कि अमरकांत नयी कहानी आंदोलन की यथार्थवादी धारा के महत्वपूर्ण कथाकार हैं। वे आज़ादी के बाद शहरी निम्न-मध्यवर्ग की जीवंत कथा कहते हैं। यशपाल ने उन्हें “भारत का गोर्की” कहा था।