डिटेंशन कैंप में कैदियों ने छुड़ाए थे अंग्रेजों के छक्के

कोलकाता, 12 अगस्त । आपने पश्चिम बंगाल के प्रतिष्ठित आईआईटी खड़गपुर को हर साल दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में जगह बनाते हुए सुना होगा लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि भारत की आजादी की लड़ाई में भी इस संस्थान के परिसर की भूमिका बहुत बड़ी है।

वैसे ही मेदिनीपुर का इतिहास मां भारती की आजादी में सबसे अनुपम है क्योंकि यहां जितने भी अंग्रेज मजिस्ट्रेटों की तैनाती हुई उन सभी को क्रांतिकारियों ने मौत के घाट उतार दिया था। एकमात्र किंग्सफोर्ड जिंदा बचा था जिसे मारने के लिए खुदीराम बोस मुजफ्फरपुर पहुंच गए थे।

आज जहां आईआईटी खड़गपुर स्थित है वहां पहले आजादी के समय अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों को कड़ी यातना देने के लिए हिजली डिटेंशन कैंप बनाया था। चलिए आज क्रांतिकारियों की बहादुरी और अंग्रेजों की बर्बरता से जुड़ी एक ऐसी कहानी के बारे में जानते हैं जो रोंगटे खड़ी कर देने वाली है।

देश का पहला भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) एक ऐसा संस्थान है, जो एक समय ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष करने वाले क्रांतिकारियों का घर था। यह संस्थान हिजली डिटेंशन कैंप में स्थापित हुआ, जो उस दौर में अंग्रेजों द्वारा क्रांतिकारियों को कैद करने के लिए बनाया गया था।

1930 के दशक में बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियां अपने चरम पर थीं। चटगांव शस्त्रागार छापे और राइटर्स बिल्डिंग पर हमले जैसी घटनाओं ने ब्रिटिश सरकार को हिला कर रख दिया था। इसके बाद, कई क्रांतिकारियों को हिजली और बक्सा के डिटेंशन कैंप में कैद किया गया।

हिजली का कैंप कोई साधारण जगह नहीं थी। यह एक विशाल परिसर था, जो कंटीले तारों और ऊंची दीवारों से घिरा हुआ था। यहां कैदियों को खेल और नाटकों में भाग लेने की अनुमति थी, लेकिन रात में उन्हें उनके कमरों में बंद कर दिया जाता था।

हिजली की गोलीकांड: शहादत की याद

16 सितंबर, 1931 का दिन हिजली डिटेंशन कैंप के इतिहास में एक काले दिन के रूप में याद किया जाता है। उस दिन, ब्रिटिश गार्डों ने बिना किसी चेतावनी के गोलियां चला दीं, जिससे स्वतंत्रता सेनानी तारकेश्वर सेनगुप्ता और संतोष मित्रा की मौत हो गई। इस घटना ने पूरे देश को हिला दिया और रवींद्रनाथ टैगोर ने इस पर “प्रश्नो” नामक कविता लिखी। क्रांतिकारियों की हत्या के बाद यहां कैदियों ने अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंक दिया। भूख हड़ताल शुरू हो गई और अंग्रेज सिपाहियों पर हमले की घटनाएं बढ़ गईं जिसकी वजह से हड़कंप मच गया था। दोनों क्रांतिकारियों के शव को लेकर यहां के भारतीय कैदियों ने आंदोलन शुरू किया और शर्त रखी कि देश के किसी बड़े नेता के हाथ में ही शव को सौंपेंगे। अंग्रेजी हुकूमत को झुकना पड़ा और नेताजी सुभाष चंद्र बोस क्रांतिकारियों का शव लेने के लिए पहुंचे।  नेताजी ने कहा था कि हिजली डिटेंशन कैंप से जिस दर्द को मैं लेकर आ रहा हूं उसे शब्दों में बयां नहीं कर सकता।

 

1947 में भारत के आज़ाद होने के बाद, सरकार ने देश के विकास के लिए उच्च तकनीकी शिक्षा की आवश्यकता को समझा। नलिनी रंजन सरकार समिति ने भारत में चार तकनीकी संस्थान स्थापित करने की सिफारिश की, जिसमें से पहला खड़गपुर में स्थापित होना था। मिदनापुर के कांग्रेसी नेताओं ने बीसी रॉय से आग्रह किया कि हिजली जेल को आईआईटी के रूप में विकसित किया जाए, ताकि यह शहीदों के लिए एक उपयुक्त स्मारक बन सके।

1950 में हिजली डिटेंशन कैंप में आईआईटी खड़गपुर की स्थापना हुई। 21 अप्रैल, 1956 को जवाहरलाल नेहरू ने औपचारिक रूप से इस परिसर का उद्घाटन किया। इस अवसर पर नेहरू ने कहा, “जब मैं इस जगह पर खड़ा होता हूँ तो मेरा मन अनिवार्य रूप से उस कुख्यात संस्थान की ओर जाता है, जिसके लिए यह जगह प्रसिद्ध हुई, अभी नहीं बल्कि 20 या 30 साल पहले – हिजली डिटेंशन कैंप।”

आज, आईआईटी खड़गपुर एक प्रतिष्ठित संस्थान के रूप में खड़ा है, लेकिन इसकी नींव में शहीदों के बलिदान की कहानी गहराई से जुड़ी हुई है। इस संस्थान का पुराना भवन, जिसे अब हिजली शहीद भवन के नाम से जाना जाता है, नेहरू विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संग्रहालय है।

स्वतंत्रता दिवस के इस अवसर पर, यह कहानी हमें याद दिलाती है कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम की गाथा हर कोने में बसी हुई है और आईआईटी खड़गपुर का यह इतिहास उस संघर्ष की एक छोटी सी बानगी हैं।