
नई दिल्ली, 27 अगस्त । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने बुधवार को कहा कि हिंदुत्व का सार सत्य, प्रेम और अपनापन है। समाज और जीवन में संतुलन ही धर्म है, जो किसी भी प्रकार के अतिवाद की ओर नहीं जाने देता। इसी संतुलन को भारत की परंपरा ने मध्यम मार्ग कहा है और यही आज की दुनिया की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
डॉ. भागवत संघ के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में बुधवार को यहां के विज्ञान भवन में ‘100 वर्ष की संघ यात्रा : नए क्षितिज’ विषय पर तीन दिवसीय व्याख्यानमाला को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि संघ का कार्य किसी के विरोध में नहीं है बल्कि निष्ठा और सज्जनों से मैत्री की भावना के साथ आगे बढ़ा है। संघ स्वयंसेवक सुविधा-भोगी नहीं होता, उसे न कोई प्रोत्साहन मिलता है, न ही लाभ, बल्कि समाज-कार्य में आनंद का अनुभव ही उसका प्रेरणास्रोत है। उन्होंने स्पष्ट किया कि संघ का आधार शुद्ध सात्विक प्रेम है। यह मोह नहीं बल्कि समाज के प्रति श्रद्धा है। ऋषि-मुनियों ने हमें यह सिखाया कि अपने लिए नहीं, बल्कि सबके लिए जीना ही जीवन की सार्थकता है।
उन्होंने कहा कि हिंदुत्व किसी संकीर्णता का नाम नहीं है, बल्कि यह सत्य, प्रेम और अपनापन है। यही भावना भारत को विश्व के लिए बड़े भाई के रूप में प्रस्तुत करती है, ताकि दुनिया जीवन की विद्या भारत से सीख सके। सरसंघचालक डॉ. भागवत ने कहा कि बीते ढाई-तीन सौ वर्षों में जड़वाद और उपभोक्तावादी विचारों ने जीवन की भद्रता को कम किया है। महात्मा गांधी ने जिन सात सामाजिक पापों की चेतावनी दी थी- काम बिना परिश्रम, आनंद बिना विवेक, ज्ञान बिना चरित्र, व्यापार बिना नैतिकता, विज्ञान बिना मानवता, धर्म बिना बलिदान और राजनीति बिना सिद्धांत—वे आज और बढ़ गए हैं।
उन्होंने कहा कि इस कारण दुनिया में कट्टरपन, कलह और अशांति बढ़ी है। अब दुनिया को अपना नजरिया बदलना होगा। धर्म का अर्थ केवल पूजा, पंथ या कर्मकांड नहीं है, बल्कि यह विविधता को स्वीकार करने और संतुलित जीवन जीने की सीख देता है। धर्म हमें बताता है कि हमें भी जीना है, समाज को भी, प्रकृति को भी। सभी की अपनी मर्यादा है और उसका सम्मान ही सच्चा धर्म है। यही मध्यम मार्ग है जो दुनिया को समन्वय और शांति की राह दिखा सकता है।
डॉ. भागवत ने कहा कि संघ की 100 साल की यात्रा में उपेक्षा और विरोध के वातावरण में संघ के स्वयंसेवकों ने अपनी निष्ठा के बलबूते स्वयं को दांव पर लगाकर संघ को इन सभी कालखंडों से पार किया। इस दौरान कई कटु अनुभव आए, विरोध हुआ इसके बाद भी संपूर्ण समाज के लिए उनके हृदय में शुद्ध सात्विक प्रेम ही रहा और आज भी है। यही संघ है, शुद्ध सात्विक प्रेम ही संघ कार्य का आधार है।
उन्होंने कहा कि अब वह समय नहीं रहा और आज अनुकूलता है। समाज की मान्यता है। विरोध बहुत कम हो गया है और जो है उसकी भी धार बहुत कम हो गई है। उसका परिणाम नहीं होता है। ऐसे में भी स्वयंसेवक सोचता है कि अनुकूलता मिली है तो भी सुविधाभोगी नहीं होना है। संपूर्ण हिन्दू समाज को संगठित करने के अपने लक्ष्य को पाने तक सतत चलते रहना है। इसका तरीका उन्होंने मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा चार शब्दों में बताया। सज्जनों से मैत्री करना, जो सज्जनता नहीं करते उनकी उपेक्षा करना, कोई अच्छा करता है तो आनंद जताना, दुर्जनों से घृणा नहीं बल्कि करुणा करना। उन्होंने कहा कि संघ में स्वयंसेवकों को मिलता कुछ भी नहीं है। संघ में इंसेंटिव नहीं है डिसइंसेंटिव बहुत सारे हैं।
सरसंघचालक ने कहा कि लोग पूछते हैं कि संघ में आकर हमें क्या मिलेगा? उन्होंने कहा कि मैं तो सीधा जवाब देता हूं कि तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा, तुम्हारे पास जो है वो भी चला जाएगा। हिम्मत है तो करो, ये हिम्मत वालों का काम है। स्वयंसेवक कर रहे हैं और इसलिए करते हैं कि समाज की ऐसी निःस्वार्थ सेवा करने के कारण उनको जो जीवन में सार्थकता प्राप्त होती है। उसका उनको आनंद होता है। वो जानते हैं कि वह जो कर रहे हैं वो सभी के हित की बात है। उन्हें तर्क से समझाना नहीं पड़ता है। अपने जीवन की सार्थकता और पूरी दुनिया के हित के लिए हम ये काम कर रहे हैं ऐसी अनुभूति उनको इस पथ पर सतत परिश्रमशील रहने के लिए उनको प्रेरित करती है। क्योंकि ध्येय के लिए सभी स्वयंसेवक हैं। शुद्द सात्विक प्रेम का संबंध है, लेकिन वो मोह का संबंध नहीं है। ये व्यक्तिगत प्रेम नहीं है। एक ध्येय के पथिक हैं।