पश्चिम सिंहभूम, 23 अगस्त ।  कोल्हान के आदिवासी समाज में सदियों से धान और अन्य अनाज को सुरक्षित रखने के लिए पूड़ा (बांदी) बनाने की परंपरा रही है।

पुआल की मोटी रस्सियों से बने इन विशालकाय बंडलों में अनाज को बांधकर रखा जाता था, जो न केवल लंबे समय तक सुरक्षित रहता था, बल्कि परिवार की आर्थिक समृद्धि और सामाजिक प्रतिष्ठा का भी प्रतीक माना जाता था। जिस घर में जितने अधिक पूड़े होते थे, समाज में उस परिवार की प्रतिष्ठा उतनी ही अधिक होती थी। वैवाहिक रिश्ते तय करने में भी पूड़े की संख्या का महत्व रहता था, क्योंकि यह सीधे तौर पर उस परिवार की उत्पादन क्षमता और जमीन की स्थिति का पैमाना माना जाता था।

लेकिन अब यह परंपरा लगभग लुप्त हो चुकी है। आज  पूड़े की जगह प्लास्टिक की बड़ी-बड़ी बोरियों ने ले ली है। चाईबासा मतकमहातु के किसान बाबू देवगम, नितिन देवगम और जांबीरा देवगम शनिवार को बताते हैं कि पहले पूड़ा बनाने में समय, मेहनत और मजदूरों की आवश्यकता होती थी। इसमें लागत भी अधिक आती थी, जबकि प्लास्टिक की बोरियां आसानी से उपलब्ध हैं, सस्ती भी हैं और उपयोग में सरल भी। यही वजह है कि लोग अब धान और अन्य अनाज इन्हीं बोरियों में संग्रहित करने लगे हैं।

कभी हो समाज में पूड़ा मात्र भंडारण का साधन नहीं था, बल्कि सामाजिक मान्यता का प्रतीक था। तब नौकरी का महत्व बहुत कम था और असली पहचान इस बात से होती थी कि किसी परिवार के पास कितने पूड़े हैं। लेकिन धीरे-धीरे पैदावार में कमी आई और समय के साथ सुविधाजनक विकल्प उपलब्ध हो गए, जिससे पूड़ा बनाने की परंपरा लगभग खत्म हो गई। आज यह परंपरा सिर्फ बुजुर्गों की स्मृतियों और कहानियों में ही जीवित है।