दशा और दिशा बदलता मारवाड़ी समाज
पवन झा
पूरी दुनिया बदल रही है। विज्ञान के वरदान से जिंदगी आसान होती जा रही है। वह दौर गया जब यह मुहावरा लोकप्रिय हुआ था – “जहां न जाए बैलगाड़ी वहां भी जाए मारवाड़ी”। आज का मारवाड़ी घंटों में दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक का सफर तय कर लेता है। कामचलाऊ शिक्षा को पीछे छोड़कर आज का मारवाड़ी उच्च शिक्षा के लिए दुनिया के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेता है और अपनी प्रतिभा व दक्षता से दुनिया की नामचीन कंपनियों में सर्वोच्च ओहदा हासिल करता है।
मूलरूप से व्यापार-वाणिज्य से जुड़े इस समाज ने जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी सफलता का परचम लहराया है। शिक्षा, तकनीक, खेल-कूद, साहित्य और राजनीति सभी क्षेत्रों में इस समाज ने अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है। वैश्वीकरण के दौर में मारवाड़ी सही मायने में विश्व नागरिक कहलाने का अधिकारी है। व्यापार – वाणिज्य के सभी नये स्वरूपों को अपनाकर फटाफट आर्थिक साम्राज्य खड़ा करने में निपुण मारवाड़ी देश की अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण साथी है।
इतना गुणी, समर्पित और कार्यकुशल समाज यदि आलोचनाओं का केंद्र है तो इस बात पर चर्चा जरूरी है कि आखिर कमी कहां है? कौन से वे कारक हैं जिसके चलते सभी खूबियों के होते हुए मारवाड़ी समाज पतन के गर्त में धंसता चला जा रहा है?
आपने चार दशक के सामाजिक जीवन में मैंने जितना देखा, सुना और अनुभव किया है उसके आधार पर कह सकता हूं कि अपनी विशेषताओं को नजरअंदाज करके पाश्चात्य की विकृति को तत्परता के साथ स्वीकार करने की मानसिकता ने मारवाड़ी समाज का बेड़ा गर्क करके रख दिया है। सार्वजनिक जीवन में भारत और भारतीयता की वकालत लेकिन पारिवारिक जीवन में पश्चिम का अंधानुकरण करके मारवाड़ी समाज ने अपने पैरों तले की मिट्टी खो दी है। सूचना प्रौद्योगिकी के विकास संग सोशल मीडिया की विकृतिपूर्ण सामग्री के प्रचार-प्रसार का हिस्सा बनकर मारवाड़ी समाज ने अपना वर्तमान और भविष्य अंधकारमय कर लिया है जिसमें जीवन तो है जीवंतता गायब है।
अपनी कमाई से धर्मार्थ कामों को पूरा करने वाला मारवाड़ी अपने वृद्ध माता-पिता को वृद्धाश्रम में रखने के लिए कुख्यात होता जा रहा है। कभी संयुक्त परिवार का हिमायती आज न्यूक्लियर फैमिली के पक्ष में अपनी दलीलें दे रहा है। घर-घर कलह का मुक्तमंच बन गया है जहां चर्चा-परिचर्चा, विचार-विमर्श, हास-परिहास, स्नेह-सम्मान, आदर-सत्कार सबकुछ स्वार्थ आधारित है।
एक समय भले कहा जाता रहा हो-“न खाता न बही, जो मारवाड़ी कहे वह सही” लेकिन आज का सच यह है कि एक मारवाड़ी ही दूसरे मारवाड़ी की बात पर यकीन नहीं करता। व्यापार – वाणिज्य के क्षेत्र में गुणात्मक पतनशीलता के मूल में अविश्वास और आशंका है। सब एक-दूसरे को ठगने के जुगत में लगे पड़े हैं। दीवाला निकालना अब शर्म का प्रतीक न होकर चतुराई का पर्याय बन गया है। बाजार से करोड़ों बटोरो और दीवाला निकालकर धंधा समेटो। क्या यह अच्छे सामाजिक भविष्य की गारंटी है?
सामाजिक संस्थाओं और नेतृत्व की महत्ता सिर्फ बातचीत और कागजी खानापूर्ति तक सीमित है। नेतृत्व आज समाज का आदर्श नहीं बल्कि सामाजिक कोढ़ बनकर रह गया है। लोग नेतृत्व का अनुसरण नहीं करते बल्कि नेतृत्व की सरपरस्ती में सामाजिक रीतियों – नीतियों का बलात्कार करते हैं। खुलेआम डंके की चोट पर सामाजिक परंपराओं की धज्जियां उड़ाई जाती हैं लेकिन मजाल है किसी के कानों पर जूं तक रेंग जाए?
अतीतोन्मुखी समाज सुंदर और सारगर्भित भविष्य का आधार तैयार नहीं कर सकता। वह कु़ठाओं से ग्रस्त हीनता की आंच में धीरे-धीरे जलता रहता है। अपनी संतति को जागरूक, सचेतन, संवेदनशील बनाने की बजाय उसे जबरन अपने अधकचरा ज्ञान से लादकर भविष्य के लिए मौन-मूक मशीनी जीव तैयार करता है जिसका कार्य किसी के इशारे पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करते जाना है बिना इस बात की तस्दीक किये की इससे उसका क्या हित सधने वाला है?
संस्थाओं की उम्र बढ़ने से उसकी उपादेयता तभी बढ़ती है जब उसके नेतृत्व में वैश्विक परिवर्तनों के सापेक्ष समाज को बदलने की कूबत हो। वैश्वीकरण और तथाकथित न्यू वर्ल्ड आर्डर के युग में पौराणिक और पाषाणी सभ्यताओं की दलील कारगर नहीं हो सकती। अपने स्वार्थ के लिए ऐसा करके पूरे समाज को पतनशील बनाने का घोर पाप करने वाले नेतृत्व के खिलाफ बगावत का आगाज ही स्वस्थ सामाजिक मानसिकता का परिचायक है।
आपका आधार आंचलिक हो, राष्ट्रीय हो अथवा अंतरराष्ट्रीय जरूरत उसके नियमित परिमार्जन और परिष्करण की है। नई पीढ़ी को उचित नेतृत्व देकर उसकी सोच और उर्जा के समुचित उपयोग की है। महिलाओं में तेजी से घर कर रही विकारों को समय पर सुविचारों से संपृक्त करने की है। बच्चों में पारिवारिक – सामाजिक संस्कारों के बीजारोपण की है।
इस गुरू दायित्व को निभाने की क्षमता और दक्षता है तो सामाजिक संस्थाओं की उपयोगिता है वरना कामचलाऊ, लोगदिखाऊ आयोजनों द्वारा समय, धन व शब्द खर्चने का कोई औचित्य नहीं है।
प्रस्तुत आलेख लेखक के निजी विचारों पर आधारित है।