
कोलकाता, 11 जून । ओडिशा के श्रीक्षेत्र पुरी में भगवान जगन्नाथ की स्नान यात्रा जितनी धार्मिक श्रद्धा से मनाई जाती है, उसी भक्ति और गरिमा के साथ कोलकाता के कालीघाट महातीर्थ में भी यह पर्व मनाया गया। जेष्ठ पूर्णिमा यानी आज बुधवार के दिन दोनों ही तीर्थस्थलों पर विशेष अनुष्ठानों के साथ यह परंपरा निभाई गई, जिसमें शक्ति और वैष्णव परंपराओं का अनोखा समन्वय देखा गया।
पुरी में जहां इस दिन को भगवान जगन्नाथ के प्राकट्य दिवस के रूप में मनाया जाता है और उन्हें रत्नवेदी से बाहर लाकर स्नान मंडप पर जलाभिषेक किया जाता है, वहीं कालीघाट में यह दिन देवी सती के चरणों की पूजा और स्नान से जुड़ा होता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, जेष्ठ पूर्णिमा के दिन ही आत्माराम ब्रह्मचारी और ब्रह्मानंद गिरी नामक दो ब्रह्मचारियों ने कालीघाट के तालाब से देवी सती के पत्थरवत चरणांश को निकालकर मंत्रोच्चारण के साथ मंदिर में प्रतिष्ठित किया था। तभी से इस दिन को एक विशेष अनुष्ठान के रूप में मनाने की परंपरा शुरू हुई।
वर्तमान में देवी सती का यह पवित्र अंग देवी दक्षिणा काली की मूर्ति के नीचे एक चांदी के पात्र में सुरक्षित रखा गया है। स्र्नान यात्रा के दिन मंदिर में केवल सेवायत ब्राह्मण ही प्रवेश कर सकते हैं और वह भी आंखों पर पट्टी बांधकर। देवी के चरणांश को गंगाजल, गुलाबजल, जवा पुष्प का तेल, सुगंधित इत्र और अगरु से स्नान कराकर, उसे सुनहरे धागे से कढ़ाई किया गया नया बनारसी वस्त्र पहनाया जाता है। यह पूरा अनुष्ठान गुप्त और अत्यंत श्रद्धाभाव से सम्पन्न होता है।
इस पर्व की एक और विशेषता यह है कि शक्ति और वैष्णव परंपराएं इस दिन एक सूत्र में बंधती हैं। शास्त्रों में यह उल्लेख मिलता है कि कलियुग में श्रीकृष्ण और काली एक ही शक्ति के दो रूप हैं। इस सिद्धांत को मान्यता देते हुए, स्र्नान यात्रा की रात या भोर में देवी दक्षिणा काली वैष्णवरूप में भक्तों को दर्शन देती हैं। मान्यता है कि एक बार सेवायत भवानीदास चक्रवर्ती को स्वप्न में देवी ने तिलक लगाने की इच्छा जताई थी, जिसके बाद देवी की नासिका पर श्वेत चंदन का तिलक लगाने की परंपरा शुरू हुई।