कोलकाता, 31 जुलाई। हरियाली तीज के पावन पर्व पर श्री शाकम्भरी सेवा ट्रस्ट एवं श्री शाकम्भरी भक्त मंडल, कोलकाता के संयुक्त तत्वावधान में बिधान गार्डन में “माँ शाकम्भरी सिंधारा एवं झूलन महोत्सव” का भव्य आयोजन श्रद्धा, संस्कृति और भक्ति के अनुपम संगम के रूप में सम्पन्न हुआ।

माँ शाकम्भरी देवी दुर्गा का वह करुणामयी रूप हैं, जिन्होंने अपने सौ नेत्रों से पृथ्वी की पीड़ा को देखकर उसे अन्न, फल-फूल और वनस्पतियों से संजीवनी दी। उन्हें ‘साताक्षी’ भी कहा जाता है। माँ की आराधना से न केवल घर में सुख-शांति आती है, बल्कि आरोग्यता और समृद्धि भी प्राप्त होती है।

महोत्सव का शुभारंभ माँ शाकम्भरी के आह्वान एवं पावन दुर्गा सप्तशती पाठ से हुआ, जिसने सम्पूर्ण वातावरण को आध्यात्मिक ऊर्जा से भर दिया। इसके पश्चात कुमारी कन्याओं का पूजन विधिपूर्वक सम्पन्न किया गया, जो मातृशक्ति के सम्मान और सांस्कृतिक मूल्यबोध का प्रतीक बना। माँ शाकम्भरी के दिव्य श्रृंगार के दर्शन इस आयोजन का विशेष आकर्षण बने, जिसमें ऋतु पुष्पों, पारंपरिक आभूषणों एवं लोक-श्रृंगार से सजी माँ की प्रतिमा ने श्रद्धालुओं को भावविभोर कर दिया। माँ के हिंडोले के दर्शन ने भक्तों को अलौकिक और निर्मल आनंद की अनुभूति कराई।

इसके पश्चात भजन संध्या का आयोजन हुआ, जिसमें प्रसिद्ध भजन गायक सौरव मधुकर व उनकी टीम ने माँ की महिमा का ऐसा भावपूर्ण और कर्णप्रिय गायन प्रस्तुत किया कि श्रोतागण देर तक भक्ति रस की गंगा में निमग्न हो गए। शाकम्भरी भक्त मण्डल के सदस्यों व अन्य के द्वारा गाये गये  “दरबार प्यारो लागे रे… हे मैया हे मैया दरबार प्यारो लागे रे, श्रृंगार प्यारो लागे रे…”

इसके पश्चात प्रस्तुत नृत्यनाटिका “शाकम्भरी मंगल स्तुति” ने भक्तों के मन को आध्यात्मिक भावों से भर दिया। माँ के प्रति अगाध श्रद्धा को व्यक्त करने के लिए चुनरी अर्पण और गजरा श्रृंगार कार्यक्रम में सैकड़ों श्रद्धालु सम्मिलित हुए और माँ को भक्ति भाव से सजाया। महोत्सव के अंत में छप्पन भोग का विशेष अर्पण कर माँ को नमन किया गया, जिसके पश्चात महाभोग प्रसाद का वितरण किया गया।

महोत्सव के संयोजक अशोक ढेडिया ने बताया कि यह आयोजन केवल धार्मिक आस्था का उत्सव नहीं, बल्कि संस्कृति, समाज और प्रकृति के प्रति हमारी सामूहिक जिम्मेदारी और श्रद्धा की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। यह महोत्सव माँ शाकम्भरी की कृपा के साथ-साथ संस्कृति, स्त्री-सम्मान और प्रकृति के संरक्षण की भावना को सहेजने वाला पुण्य-पर्व बनकर उभरा।