प्रदीप ढ़ेडिया

होली का आगाज हो चुका है। जाति-धर्म-समुदाय की संकीर्णता से ऊपर उठकर लोग रंगों से सराबोर होने को तैयार हैं। गांवों में फाग गाने की शुरुआत हो चुकी है। शहरों में भी

ढ़प्प धमाल की महफिलें सजने लगी हैं।

होली रंग-उमंग ही नहीं, मेल-मिलाप और आत्मीयता को बल देने वाला ऐसा सहज त्योहार है जिसमें मनुष्य अपना संकोच त्यागकर आनंद भाव से भर उठता है। होली न केवल जीवन के परंपरागत ढर्रे को तोड़ती है, बल्कि हर किसी को अपना बनाने-समझने का संदेश देती है। इसी कारण यह एक अनूठा त्योहार है। होली मन के उल्लास के साथ प्रेम भाव को व्यक्त करने वाला पर्व है। चूंकि होली हर तरह के सामाजिक भेद को मिटाती है इसीलिए उसे उमंग, उल्लास, रोमांच और प्रेम के आह्वान के पर्व के रूप में अधिक जाना जाता है। कलुषित भावनाओं का होलिका दहन कर नेह की ज्योति जलाने और सभी को एक रंग में रंगकर बंधुत्व को बढ़ाने वाला यह त्योहार आज भारत के साथ दुनिया के उन देशों में भी मनाया जाता है जहां भारतवंशी हैं या फिर जहां भारतीय संस्कृति का प्रभाव है।

होली का संदेश है- प्रेम, बंधुत्व के साथ प्रकृति की महत्ता

होली मनाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन उसका एक ही संदेश है- प्रेम, बंधुत्व के साथ प्रकृति की महत्ता। होली शीत ऋतु की विदाई और ग्रीष्म के आगमन का सांकेतिक पर्व है। बसंत के बाद इस समय पतझड़ के कारण साख से पत्ते टूटकर दूर हो रहे होते हैं। ऐसे में परस्पर एकता, लगाव और मैत्री को एक सूत्र में बांधने का संदेशवाहक यह पर्व पूरे परिवेश को एक अलग उमंग से भर देता है। फागुन की निराली बासंती हवाओं में संस्कृति के परंपरागत परिधानों में आंतरिक प्रेमानुभूति सुसज्जित होकर चहुंओर मस्ती का आलम बिखेरती है, जिससे दु:ख-दर्द भूलकर लोग रंगों में डूब जाते हैं।

ब्रज की होली का अपना अलग अंदाज

देश के हर हिस्से की होली अपना अलग अंदाज लिए होती है, लेकिन जब बात होली की हो तो ब्रज की होली को बिसराया नहीं जा सकता। ढोलक की थाप और झांझ की झंकार के साथ लोक गीतों की स्वर लहरियों से वसुधा के कण-कण को प्रेममय क्रीड़ा के लिए आकर्षित करने वाली होली ब्रज की गलियों में बड़े अद्भुत ढंग से मनाई जाती है। फागुन में कृष्ण और राधा के बीच होने वाली प्रेम-लीलाओं के आनंद का यह त्योहार प्रकृति के साथ जनमानस में सकारात्मकता और नवीन ऊर्जा का संचार करने वाला है।

होली का कवियों ने अपने-अपने तरीके से गुणगान किया

यकीनन होली के इस माहौल में मन बौरा जाता है। जहां कई कवियों ने फागुन मास में नायक और नायिका के बीच बढ़ रही उत्कंठा को अपनी रचनाओं में ढाला है वहीं कई ने प्रकृति के बदलते स्वरूप का मनोरम चित्रण किया है। अनुराग और प्रीति के इस पर्व का भक्तिकालीन और रीतिकालीन काव्य में बखूबी चित्रण किया गया है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन कवि सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीरा, कबीर और रीतिकालीन कवि बिहारी, केशव, घनानंद सहित सगुन साकार और निर्गुण निराकर भक्तिमय प्रेम और फागुन का फाग भरा रस सभी के अंतस की अतल गहराइयों को स्पर्श करके गुजरा है। इसे होली की ही महिमा कहा जाएगा कि तमाम मुस्लिम कवियों ने भी उसका अपने-अपने तरीके से गुणगान किया है।

होली का त्योहार प्रणय मिलन और विरह वेदना के बाद सुखद प्रेमानुभूति के आनंद का प्रतीक है

होली का त्योहार प्रणय मिलन और विरह वेदना के बाद सुखद प्रेमानुभूति के आनंद का प्रतीक है। राग-रंग और अल्हड़पन का झरोखा, नित नूतन आनंद के अतिरेकी उद्गार की छाया, राग-द्वेष का क्षय कर प्रीति के इंद्रधनुषी रंग बिखेरने वाला यह त्योहार कितनी ही लोककथाओं और किंवदंतियों में गुंथा हुआ है। प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप की कथा जनमानस में सर्वाधिक प्रचलित है।

बुराई का प्रतीक होलिका अच्छाई के प्रतीक प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं कर सकी

बुराई का प्रतीक होलिका अच्छाई के प्रतीक और ईश्वर श्रद्धा के अनुपम उदाहरण प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं कर सकी। होली यही संदेश देती है कि बुराई भले कितनी ही बुरी क्यों न हो पर अच्छाई के आगे उसका मिटना तय है। समय के साथ होली मनाने के तरीकों में भी बदलाव आया है, लेकिन हमारे अन्य पर्वों की तरह होली भी हमें अपनी पंरपराओं से जुड़ने को कहती है। इन पंरपराओं को पुष्ट किया जाना चाहिए और इस पर विचार होना चाहिए कि आखिर फागुन के प्राचीन उपमा-अलंकार कहां गए? मदन मंजरियों का क्या हुआ? पावों में महावर लगाई वे सुंदरियां कहां गई जो बसंत के स्वागत में फागुनी गीत गाती संध्या के समय अभिसार के लिए निकला करती थीं? ढोलक की गूंज के साथ फाग गायन को सुनने के लिए अब कान क्यों तरसते हैं। होली यह स्मरण दिलाती है कि हमें अपनी पंरपराओं को सहेजने की जरूरत है।

कहीं होली वाट्सएप-फेसबुक के संदेशों तक सिमटकर न रह जाए

आधुनिकता और संचार क्रांति के इस युग में होली खुले मैदान, गली-मोहल्लों से निकलकर मोबाइल स्क्रीन पर सिमट रही है। हमें सुनिश्चित करना होगा कि होली वाट्सएप-फेसबुक के संदेशों तक सिमटकर न रह जाए। होली को बिंदास और अल्हड़ तरीके से मनाने की पारंपरिक पद्धति के खंडन ने कुछ लोगों को होली के प्रति उदासीन किया है तो इसीलिए कि इस पर्व के मूल उद्देश्य की अनदेखी होनी लगी है।

मेल-मिलाप देने वाली होली उसी आभा के साथ मनाई जाए जिसके लिए जानी जाती है

यह हम सबकी जिम्मेदारी है कि मेल-मिलाप और खुशियों की सौगात देने वाली होली अपनी उसी आभा के साथ मनाई जाए जिसके लिए वह सदियों से जानी जाती रही है। होली के रंगों का केवल भौतिक ही नहीं बल्कि आत्मिक महत्व भी है। रंग हमारी उमंग में वृद्धि करते हैं और हर रंग का मानव जीवन से गहरा अंतर्संबंध है। इसीलिए सदैव इस पर जोर दिया जाता है कि होली प्राकृतिक रंगों से खेलें। ऐसा करके आप केवल प्रकृति के सानिध्य में ही नहीं जाते, बल्कि उसे पोषण भी प्रदान करते हैं और साथ ही उसकी महत्ता से भी अवगत होते हैं।

होली का आनंद तभी है जब उसे परंपरागत तौर-तरीकों से खेला जाए

होली का आनंद तभी है जब उसे परंपरागत तौर-तरीकों से खेला जाए। हमारे प्रत्येक पर्व किसी विशेष खान-पान से जुड़े हैं। होली भी अपने विशेष खान-पान के लिए जानी जाती है। यह ठीक नहीं कि पर्व विशेष से जुड़े परंपरागत खान-पान पर बाजार की मिठाइयां हावी हो रही हैं। होली ऐसे मनाई जानी चाहिए जिससे उसके रंग और चटख हों। होलिका दहन के नाम पर केवल घास-फूस ही न जलाएं अपितुु उन बुराइयों का भी दहन करें जो समाज में अलगाव और वैमनस्य बढ़ा रही हैं। इसी तरह केवल अबीर-गुलाल ही नहीं उड़ाएं, बल्कि अपनत्व और बंधुत्व का रंग और गाढ़ा करें।

 

रंगों से सराबोर हो लेकिन

जीवन भाव-विभोर हो लेकिन

मनोमालिन्य खतम कर सबसे

रिश्तों का गठजोड़ हो लेकिन