सांसद डॉ. मन्नालाल रावत ने डीलिस्टिंग का मुद्दा संसद में उठाया

1950 से संवैधानिक हक से वंचित जनजातियों की आवाज 50 वर्षों बाद फिर गूंजी लोकसभा में

उदयपुर, 21 जुलाई। भारत की 720 जनजातियों की संवैधानिक अधिकारों की मांग एक बार फिर संसद के मानसून सत्र में गूंजी। उदयपुर सांसद डॉ. मन्नालाल रावत ने सोमवार को लोकसभा में नियम 377 के तहत सूचना देते हुए डीलिस्टिंग के मुद्दे को प्रमुखता से उठाया। यह मामला 1950 से संविधान की अधिसूचना में रह गई एक महत्वपूर्ण कमी से जुड़ा है, जिसके चलते कई मूल जनजातीय समुदाय आज भी अपने संवैधानिक अधिकारों से वंचित हैं।

डॉ. रावत ने बताया कि वर्ष 1950 में संविधान के अनुच्छेद 342 के अंतर्गत अनुसूचित जनजातियों की पहचान और अधिसूचना का अधिकार राष्ट्रपति को सौंपा गया। इसी के तहत अनुसूचित जनजातियों की सूची अधिसूचित की गई थी। हालांकि, अनुसूचित जातियों के मामले में तो यह प्रावधान है कि धर्मांतरण के बाद व्यक्ति एससी के अधिकारों से वंचित हो जाएगा, लेकिन यह स्पष्ट प्रावधान अनुसूचित जनजातियों के लिए नहीं किया गया। फलस्वरूप, वे लोग जो अपनी मूल जनजातीय संस्कृति, परंपराओं और आस्था को त्यागकर ईसाई या इस्लाम धर्म अपना चुके हैं, फिर भी आज भी अनुसूचित जनजाति के आरक्षण, छात्रवृत्तियों, सरकारी नौकरियों और अन्य योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं। इससे मूल संस्कृति में रहने वाले आदिवासियों का हक मारा जा रहा है।

नरेंद्र मोदी सरकार से उम्मीद
-डॉ. रावत ने जोर देते हुए कहा कि यह विषय सामाजिक न्याय, संविधान की भावना और मूल जनजातीय समाज के अधिकारों की रक्षा से जुड़ा है। आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश की सरकार जनजातीय विकास को लेकर गंभीर और प्रतिबद्ध है। अब समय आ गया है कि एससी के समान एसटी के लिए भी स्पष्ट परिभाषा एवं विधिक प्रावधान बनाकर यह सुनिश्चित किया जाए कि धर्मांतरित व्यक्ति एसटी के दायरे में न आएं।

इतिहास की पुनरावृत्ति: 1970 के दशक का स्मरण
-सांसद डॉ. रावत ने अपने वक्तव्य में कहा कि यह मुद्दा नया नहीं है। 1970 के दशक में कांग्रेस के दिग्गज आदिवासी नेता डॉ. कार्तिक उरांव के नेतृत्व में लोकसभा के 348 सांसदों ने अनुसूचित जनजातियों के परिभाषाकरण के समर्थन में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखा था। लेकिन बहुमत होते हुए भी वह बिल नहीं पारित हुआ, क्योंकि कुछ धर्मांतरित प्रभावशाली वर्गों के दबाव में उस पर कार्रवाई नहीं की गई। यह लोकतंत्र और सामाजिक न्याय दोनों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण था।

बीएपी पार्टी पर भी साधा निशाना
-डॉ. रावत ने कहा कि डीलिस्टिंग आंदोलन का विरोध करने वाली पार्टियों की मानसिकता उजागर हो चुकी है। डूंगरपुर और बांसवाड़ा क्षेत्र में सक्रिय बीएपी पार्टी डीलिस्टिंग का विरोध कर रही है, जिससे यह स्पष्ट है कि यह पार्टी मूल संस्कृति वाले आदिवासियों के बजाय केवल धर्मांतरित लोगों के हितों की पक्षधर है।

जनजाति सुरक्षा मंच ने किया समर्थन
-जनजाति सुरक्षा मंच के राष्ट्रीय संगठन मंत्री सूर्य नारायण सुरी ने सांसद रावत द्वारा उठाए गए इस कदम को ऐतिहासिक और सराहनीय बताया। उन्होंने कहा कि यह मांग डॉ. कार्तिक उरांव की वर्षों पुरानी सोच का विस्तार है, जिसे अब साकार करने का वक्त आ गया है। कांग्रेस को भी चाहिए कि वह अपनी पूर्व की गलतियों को सुधारते हुए इस मुद्दे पर समर्थन दे।

राजस्थान संयोजक ने जताया भरोसा
-जनजाति सुरक्षा मंच के राजस्थान संयोजक लालूराम कटारा ने कहा कि मंच लंबे समय से डीलिस्टिंग की मांग को लेकर जन जागरण, आंदोलन और संवाद कर रहा है। सांसद डॉ. रावत द्वारा संसद में इस विषय को पुनः उठाना एक साहसिक और दूरदर्शी निर्णय है। यह डॉ. कार्तिक उरांव के अधूरे सपने को साकार करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।