
ओंकार समाचार
पूर्वी सिंहभूम , 20 अक्टूबर । जमशेदपुर से सटे ग्रामीण इलाकों में इन दिनों आदिवासी संस्कृति और परंपरा के प्रतीक सोहराय पर्व की रौनक छाई हुई है। गांवों के झोपड़ीनुमा मिट्टी के घर दुल्हन की तरह सजाए जा रहे हैं, और हर दीवार कलाकृतियों के रंगों से जीवंत केनवास बन गई है।
करनडीह, सरजामदा, रानीडीह, हलुदबनी, पुरीहासा, तालसा, नरा, काचा, बेड़ाढीपा, बागबेड़ा और गदड़ा गोविदपुर सहित आसपास के गांवों में सोहराय की तैयारी पूरे उत्साह से चल रही है। आदिवासी महिलाएं और बच्चियां गोबर, मिट्टी, चूना और प्राकृतिक रंगों से दीवारों पर सुंदर सोहराय पेंटिंग बना रही हैं। इन चित्रों में पशुओं के झुंड, पेड़-पौधे, वृक्षों की डालियां और पारिवारिक जीवन के दृश्य झलकते हैं — जो प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व की आदिवासी दर्शन को दर्शाते हैं।
सोहराय पर्व फसल कटाई के बाद मवेशियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का त्योहार है। दिवाली के अगले दिन से शुरू होकर यह पांच दिनों तक मनाया जाता है। इस दौरान किसान अपने पशुधन को स्नान कराते, तेल लगाकर सजाते और उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। यह पर्व धरती, जल, वायु और जीवों के प्रति सम्मान का प्रतीक है।
गांवों में महिलाएं समूह बनाकर पारंपरिक गीत गाती हैं, जिनमें धान की खुशहाली, पशुधन की समृद्धि और परिवार की सुख-शांति की कामना की जाती है। इन गीतों की धुन पर पुरुष मांदर और नगाड़ा बजाते हैं, जिससे पूरा गांव झूम उठता है। युवा पीढ़ी भी इस सांस्कृतिक उत्सव में बढ़-चढ़कर भाग ले रही है।
इन दिनों गांवों के हर घर ने नया रूप ले लिया है। मिट्टी से लिपे आंगन, फूलों की सजावट और रंगीन दीवारें मनमोहक दृश्य प्रस्तुत कर रही हैं। महिलाएं सुबह-सुबह समूह में निकलकर गोबर और मिट्टी से दीवारें लीपती हैं और फिर उन पर ‘खोड़ी’ (चूना), लाल मिट्टी, पीले और काले रंगों से प्राकृतिक आकृतियां उकेरती हैं। चित्रों में गाय, बैल, मोर, हिरन, हाथी और घोड़े जैसी आकृतियां प्रमुख रहती हैं।
आदिवासी महिलाओं का कहना है कि वे सालभर इस पर्व का इंतजार करती हैं। दिवाली के दूसरे दिन से शुरू होकर पांच दिनों तक चलने वाले इस त्योहार में मिट्टी और गोबर से घरों को सजाने और पेंटिंग के जरिए अपनी संस्कृति को जीवंत रखने की परंपरा है। इस दौरान बैल और गायों की पूजा की जाती है और उनसे कोई काम नहीं लिया जाता। घरों में पीठा-पुआ और अन्य पारंपरिक व्यंजन बनाए जाते हैं। पुरुष ढोल-नगाड़ों की थाप पर नृत्य करते हैं, जिससे पूरा गांव आदिवासी संस्कृति की धुन में झूम उठता है।








