पटना, 17 नवंबर। लोक आस्था का महापर्व छठ मनाने की परंपरा रामायण और महाभारत काल से चली आ रही है।

छठ वास्तव में सूर्योपासना का पर्व है। इसलिए, इसे सूर्य षष्ठी व्रत के नाम से भी जाना जाता है। इसमें सूर्य की उपासना उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए की जाती है। ऐसा विश्वास है कि इस दिन सूर्यदेव की अराधना करने से व्रती को सुख, सौभाग्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है और उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इस पर्व के आयोजन का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में भी पाया जाता है। इस दिन नदियों, तालाब या फिर किसी पोखर के किनारे पर पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।

छठ को पहले केवल बिहार, झारखंड और उत्तर भारत में ही मनाया जाता था, लेकिन अब धीरे-धीरे पूरे देश में इसके महत्व को स्वीकार कर लिया गया है। छठ पर्व षष्ठी का अपभ्रंश है। इस कारण इस व्रत का नामकरण छठ व्रत हो गया। छठ वर्ष में दो बार मनाया जाता है। पहली बार चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक माह में। चैत्र शुक्लपक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ और कार्तिक शुक्लपक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है।

छठ पूजा के लिए चार दिन नहाय-खाय, खरना या लोहंडा, संध्या अर्घ्य और सूर्योदय अर्घ्य महत्वपूर्ण है। छठ की पूजा में गन्ना, फल, डाला और सूप आदि का प्रयोग किया जाता है। मान्यताओं के अनुसार, छठी मइया को भगवान सूर्य की बहन बताया गया है। इस पर्व के दौरान छठी मइया के अलावा भगवान सूर्य की पूजा-आराधना होती है। कहा जाता है कि जो व्यक्ति इन दोनों की अर्चना करता है उनकी संतानों की छठी माता रक्षा करती हैं। कहते हैं कि भगवान की शक्ति से ही चार दिनों का यह कठिन व्रत संपन्न हो पाता है।

छठ को लेकर कई कथाएं हैं। एक कथा के अनुसार, महाभारत काल में जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए तब द्रौपदी ने छठ व्रत किया। इससे उनकी मनोकामनाएं पूर्ण हुईं तथा पांडवों को राजपाट वापस मिल गया। इसके अलावा छठ महापर्व का उल्लेख रामायण काल में भी मिलता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार, छठ या सूर्य पूजा महाभारत काल से की जाती है। कहते हैं कि छठ पूजा की शुरुआत सूर्य पुत्र कर्ण ने की थी। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे। मान्याताओं के अनुसार, वे प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े रहकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वे महान योद्धा बने थे।

किंवदंति के अनुसार, ऐतिहासिक नगरी मुंगेर के सीता चरण में कभी मां सीता ने छह दिनों तक रह कर छठ पूजा की थी। पौराणिक कथाओं के अनुसार,14 वर्ष वनवास के बाद जब भगवान राम अयोध्या लौटे थे तो रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए ऋषि-मुनियों के आदेश पर राजसूय यज्ञ करने का फैसला लिया। इसके लिए मुग्दल ऋषि को आमंत्रण दिया गया था लेकिन मुग्दल ऋषि ने भगवान राम एवं सीता को अपने ही आश्रम में आने का आदेश दिया। ऋषि की आज्ञा पर भगवान राम एवं सीता स्वयं यहां आए और उन्हें इसकी पूजा के बारे में बताया गया। मुग्दल ऋषि ने मां सीता को गंगा छिड़क कर पवित्र किया एवं कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने का आदेश दिया। यहीं रह कर माता सीता ने छह दिनों तक सूर्यदेव भगवान की पूजा की थी।

 

छठ व्रत की परंपरा सदियों से चली आ रही है। यह परंपरा कैसे शुरू हुई, इस संदर्भ में एक कथा का उल्लेख पुराणों में मिलता है। इसके अनुसार प्रियव्रत नामक एक राजा की कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्ति के लिए महर्षि कश्यप ने उन्हे पुत्रयेष्टि यज्ञ करने का परामर्श दिया। यज्ञ के फलस्वरूप महारानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, लेकिन वह शिशु मृत था। इस समाचार से पूरे नगर में शोक व्याप्त हो गया। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। आकाश से एक ज्योतिर्मय विमान धरती पर उतरा और उसमें बैठी देवी ने कहा, ‘मैं षष्ठी देवी और विश्व के समस्त बालकों की रक्षिका हूं।’ इतना कहकर देवी ने शिशु के मृत शरीर का स्पर्श किया, जिससे वह बालक जीवित हो उठा। इसके बाद से ही राजा ने अपने राज्य में यह त्योहार मनाने की घोषणा कर दी।

 

मार्कण्डेय पुराण में इस बात का उल्लेख मिलता है कि सृष्टि की अधिष्ठात्री प्रकृति देवी ने अपने आप को छह भागों में विभाजित किया है और इनके छठे अंश को सर्वश्रेष्ठ मातृ देवी के रूप में जाना जाता है, जो ब्रह्मा की मानस पुत्री और बच्चों की रक्षा करने वाली देवी हैं। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को इन्हीं देवी की पूजा की जाती है। शिशु के जन्म के छह दिनों के बाद भी इन्हीं देवी की पूजा करके बच्चे के स्वस्थ, सफल और दीर्घायु होने की प्रार्थना की जाती है। पुराणों में इन्हीं देवी का नाम कात्यायनी मिलता है, जिनकी नवरात्र की षष्ठी तिथि को पूजा की जाती है।

 

ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को निष्ठा के साथ करने वाले को योग्य संतान की प्राप्ति होती है। छठ पूजा में उपासक पानी में कमर तक खड़े होकर दीप जलाकर डूबते सूर्य को अर्घ्य देते हैं और छठी मैया के गीत गाते हैं। व्रत के पहले दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को नहाय-खाय के रूप में मनाया जाता है। दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को खरना किया जाता है। पंचमी को दिनभर खरना का व्रत रखने वाले उपासक शाम के वक्त गुड़ से बनी खीर, रोटी और फल प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। खरना पूजन से ही घर में देवी षष्ठी का आगमन माना जाता है।

 

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी के सूर्यास्त और सप्तमी के सूर्योदय के मध्य वेदमाता गायत्री का जन्म हुआ था। प्रकृति के षष्ठ अंश से उत्पन्न षष्ठी माता बालकों की रक्षा करने वाले विष्णु भगवान द्वारा रची माया हैं। बालक के जन्म के छठे दिन छठी मैया की पूजा-अर्चना की जाती है, जिससे बच्चे के ग्रह-गोचर शांत हो जाएं और जिंदगी मे किसी प्रकार का कष्ट नहीं आए। इस मान्यता के तहत ही इस तिथि को षष्ठी देवी का व्रत होने लगा।

 

छठ पूजा की धार्मिक मान्यताएं भी और सामाजिक महत्व भी है लेकिन इस पर्व की सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें भेदभाव, ऊंच-नीच, जात-पात भूलकर सभी एक साथ इसे मनाते हैं। किसी भी लोक परंपरा में ऐसा नहीं है। सूर्य जो रौशनी और जीवन के प्रमुख स्रोत हैं और ईश्वर के रूप में जो रोज सुबह दिखाई देते हैं उनकी उपासना की जाती है। इस महापर्व में शुद्धता और स्वच्छता का विशेष ख्याल रखा जाता है और कहते हैं कि इस पूजा में कोई गलती हो तो तुरंत क्षमा याचना करनी चाहिए वरना तुरंत सजा भी मिल जाती है।

 

सबसे बड़ी बात है कि यह पर्व सबको एक सूत्र में पिरोने का काम करता है। इस पर्व में अमीर-गरीब, बड़े-छोटे का भेद मिट जाता है। सब एक समान एक ही विधि से भगवान की पूजा करते हैं। अमीर हो वो भी मिट्टी के चूल्हे पर ही प्रसाद बनाता है और गरीब भी, सब एक साथ गंगा तट पर एक जैसे दिखते हैं।बांस के बने सूप में ही अर्घ्य दिया जाता है। प्रसाद भी एक जैसा ही और गंगा और भगवान भास्कर सबके लिए एक जैसे हैं।