उदयपुर, 18 फरवरी। ‘झीलों से लाभ’ के बजाय ‘झीलों को लाभ’ के दृष्टिकोण व कार्यों से ही जीवनदायिनी झीलें बच सकेंगी।
यह विचार रविवार को आयोजित झील संवाद में व्यक्त किये गए। संवाद में झील विशेषज्ञ डॉ अनिल मेहता ने कहा कि झीलों से अधिक आर्थिक लाभ प्राप्त करने की पाश्चात्य मानसिकता व नीतियों ने झीलों के मूल स्वरूप व पर्यावरण को गहरा आघात पंहुचाया है। जल के प्रति श्रद्धा व झीलों के प्रति कृतज्ञता के भावों के खत्म होने से ही झीलें प्रदूषित हैं। जब तक नागरिक, व्यवसायी, पर्यटक व सरकार झीलों के हितधारक के बजाय हितकारक बनने के भारतीय दृष्टिकोण को पुनः स्थापित नहीं करेंगे, झीलों की दुर्दशा बनी रहेगी।
झील प्रेमी तेज शंकर पालीवाल ने दुःख जताया कि पर्यटन को बढ़ाने के नाम पर पर्यावरण को दूषित किया जा रहा है। झीलों के किनारे खत्म हो गए हैं। पर्यटक वाहनों से हवा-पानी सब खराब हो रहे हैं। पक्षियों का आना बंद हो गया है। यह दुःखद है।
पर्यावरणविद नंद किशोर शर्मा ने कहा कि जिन घाटों पर कभी धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक कार्य होते थे वहां अब अपसंस्कृति, शोर, नशे व मौज मस्ती का बोलबाला है। यह झीलों के भविष्य के लिए घातक है।
शोधार्थी कृतिका सिंह ने झीलों के जल की गुणवत्ता व झील पारिस्थितिकी तंत्र में आई गिरावट पर चिंता व्यक्त की।
समाजिक कार्यकर्ता द्रुपद सिंह व रमेश चौहान ने पीड़ा जताई कि पर्यटन के केंद्र के रूप में विकसित हो रही झीलों में अब मछली, मेंढ़क, मगर नहीं हैं, वरन प्लास्टिक की बोतलें, घरों-होटलों का कूड़ा कचरा है। संवाद से पूर्व श्रमदान कर झील जल सतह व घाटों पर जमा कचरे को हटाया गया।