साधनहीन आम आदमी की जयगाथा

– केशव कुमार भट्ठड़

मॉडर्न रिव्यू, कलकत्ता के संपादक रामानंद चट्टोपाध्याय ने शहीद जतीन्द्रनाथ दास के शहादत के बाद भारतीय जनता द्वारा शहीद के प्रति किये गए सम्मान और उनके ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ नारे की आलोचना की थी| मॉडर्न रिव्यू के दिसंबर 1929 के अंक के संपादकीय में इन्कलाब जिंदाबाद नारे का उपहास उड़ाते हुए उन्होंने प्रश्न उठाया-“ इन्कलाब कैसे जिंदाबाद हो सकता है ?” उस समय दिल्ली एसेम्बली में बम विस्फोट करने के कारण तत्कालीन साम्राज्यवादी ब्रिटिश शासन द्वारा लाहौर केंद्रीय कारागार में बंदी भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने उनके उस संपादकीय का जबाब 22 दिसंबर 1929 को पत्र के द्वारा दिया| यह पत्र 24 दिसंबर 1929 को ट्रिब्यून पत्रिका में प्रकाशित हुआ| स्वनामधन्य संपादक रामानंद चट्टोपाध्याय के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए उन्होंने लिखा-“ यह बताना आवश्यक है, क्योंकि इस देश में इस समय इस नारे को सब लोगों तक पहुंचाने का कार्य हमारे हिस्से में आया है| इस नारे की रचना हमने नहीं की है| यही नारा रूस के क्रांतिकारी आंदोलन में प्रयोग किया गया है| प्रसिद्ध समाजवादी लेखक अप्टन सिंक्लेयर ने अपने उपन्यासों ‘बोस्टन’ और ‘आईल’ में यही नारा कुछ अराजकतावादी क्रांतिकारी पात्रों के मुख से प्रयोग कराया है| इसका अर्थ क्या है ? इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि सशस्त्र संघर्ष सदैव जारी रहे और कोई भी व्यवस्था अल्प समय के लिए भी स्थायी न रह सके, दूसरे शब्दों में देश और समाज में अराजकता फैली रहे….ना ऐसा नहीं है|….उदाहरण के लिए जब हम कहते हैं ‘जतीन्द्रनाथ दास जिंदाबाद’ तो इसका यह अर्थ नहीं कि दास सशरीर हमेशा बचे रहें| इस नारे के माध्यम से हम समझाना चाहते हैं कि उनके जीवन के महान आदर्श हमेशा जीवित रहें, जिन आदर्शों के कारण वे अपना चरम आत्मदान करने में सफल रहे| यह नारा दोहराकर हम यह इच्छा व्यक्त करते हैं कि हम इन आदर्शों का अनुकरण करते हुए खुद भी अपराजेय साहस का परिचय दे सके|” उन्होंने आगे लिखा-” क्रान्ति के लिए रक्ताक्त संघर्ष अनिवार्य नहीं है| क्रान्ति बम-पिस्तौल की पूजा मात्र नहीं है| कभी-कभी ये उद्देश्य साधने के उपाय मात्र हो सकते हैं| किसी-किसी आंदोलन में इनकी प्रधान भूमिका हो सकती है इसमें भी संदेह नहीं , किन्तु ठीक इसी कारण से ये एक और अभिन्न नहीं है|” जिस अर्थ में ये वाक्यांश प्रयुक्त हुए हैं वो है विचारों को उन्नत करते हुए उस महान लक्ष्य तक ले जाना जहाँ बेहतरी के लिए बदलाव की आकांक्षा प्रबलतम हो| जारी व्यवस्था में लोग उसके अभ्यस्त हो जाते है और बदलाव के नाम से कांपने लगते है| इस यथास्थिति के विचार को बदलने के लिए क्रान्ति के विचार की जरुरत है, अन्यथा पतन हावी हो जाएगा और प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ समूची मानवता को गुमराह कर मनुष्य की प्रगति को जड़ता और पंगुता की ओर ले जायेंगी| क्रान्ति की भावना हमेशा मानवता के अंतःकरण में जागृत रहनी चाहिए ताकि प्रतिक्रियावादी शक्तियां खुद को मज़बूत कर आगे न बढ़ सके, पुरानी व्यवस्था हमेशा बदलती रहनी चाहिए – नए को जगह देते हुए ताकि कोई तथाकथित एक ‘अच्छी’ व्यवस्था संसार को भ्रष्ट न कर सके| इसी अर्थ में हम ऊँचे स्वर में कहते है- ‘इन्कलाब जिंदाबाद’|

शहीद ए आज़म भगत सिंहक्रांतिकारी राजगुरुक्रांतिकारी सुखदेवक्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्तक्रांतिकारी मास्टर दा सूर्यसेनक्रांतिकारी प्रीतिलता वदेदार (प्रथम महिला क्रांतिकारी जिन्होंने सशत्र क्रांति में सक्रिय भूमिका निभाई, चटगाँव)सोच के अवाक् हो जाता हूँ कि जिस समय भगत सिंह ने यह पत्र लिखा उस समय उनकी अवस्था थी मात्र 22 वर्ष | गाँधीजी तब लगभग 60 वर्ष के हो रहे थे|

हमारे देश के स्वाधीनता संग्राम में क्रांतिकारियों का योगदान असीम है, अतुलनीय है| उनके आत्मोसर्ग को जरा-सा भी छोटा ना करते हुए इतना कहा जा सकता है कि कोई भी क्रांतिकारी भगतसिंह की तरह समाज और क्रान्ति विषयक विचारों के इस उन्नत-शिखर को नहीं छू पाया | इसी कारण से भगतसिंह को कहा गया “शहीद-ए-आज़म” अर्थात शहीदों के सिर-मोर| इस पत्र को लिखने के 2 वर्षों के बाद 23 मार्च 1931 को भगतसिंह को राजगुरु और सुखदेव के साथ, नियमों को ताकपर रखते हुए, ब्रिटिश शाषन द्वारा क्रूर-तम तरीके से फाँसी दे दी गयी| किन्तु तब तक ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ का नारा पूरे भारत में फ़ैल चुका था|

इससे कुछ समय पूर्व 1930 में मास्टर दा सूर्यसेन के नेतृत्व में युवकों-किशोरों का दल जब चटगाँव शस्त्रागार पर झपट पड़ा तो उनके कंठों से निकलने वाला सबसे ऊँचा स्वर था-‘इन्कलाब जिंदाबाद’|

 

हमारे देश में नयी उदार नीतियाँ लागू होने के बाद आर्थिक कारणों से गरीब कहलाने वाले मनुष्यों के जीवन को लेकर, उनके संघर्ष को लेकर चर्चा प्रायः बंद हो चुकी है। ध्यान में ही नहीं आता कि इस देश की अधिकाँश बढ़ती आबादी मध्य और निम्न मध्य वर्ग के मनुष्यों की हैं, गरीबों की है, जो पेट की भूख मिटाने से आगे सोच पाने में असमर्थ है। 80 करोड़ लोगों को मुफ्त में राशन दिए जाने की बात भारत के प्रधानमंत्री गर्व से स्वीकार करते हैं !

 

इस माहौल में याद आती है ‘चिटगाँव’ फिल्म जो क्रांतिकारी सुबोध रॉय के जीवन-हिस्से पर आधारित सच्ची घटना है| यह तत्कालीन विश्व की सबसे ताक़तवर और खूंखार साम्राज्यवादी सरकार के विरुद्ध साधन हीन आम आदमी की जयगाथा है| सुबोध रॉय चटगाँव युवक विद्रोह में सजा पाए युवकों में सबसे छोटी उम्र के थे| विद्रोह के समय उनकी आयु मात्र 14 वर्ष की थी| कम आयु होने के कारण उन्हें फाँसी की सजा नहीं हुई| उन्हें 8 वर्ष की कालेपानी की सजा हुई| 14 वर्ष के सुबोध रॉय ने 8 वर्ष अंडमान की बदनाम जेल में यातनाएँ सहकर बिताये| सुबोध रॉय ने अपने जीवन-पर्व के इस जिए हुए यथार्थ को लेख-बद्ध कर रखा था| उनकी मृत्यु (2006) के बाद ‘जलालाबादेर शपथ’ (जलालाबाद की कसम) नाम से यह घटना बंगला में धारावाहिक रूप से ‘नंदन’ पत्रिका (संपादक:श्री अनिरुद्ध चक्रवर्ती) में प्रकाशित हुई थी| इस फिल्म में मुख्य रूप से उसी का अनुसरण किया गया है |

फिल्म में ‘झुन्कू’, सुबोध रॉय के बचपन का नाम, जिसकी दोनों आँखों में दुनिया भर का अबोध-आश्चर्य भरा है – उन्ही आँखों से वह समाज को बदलने का सपना देखता है| साथ है किशोरी क्रांतिकारी प्रीतिलता वदेदार।

आजकल ‘विद्यार्थियों को राजनीति से दूर रहने’ के पक्ष में टीवी पर बोलते और समाचार पत्रों में अपने कलम का जौहर दिखाते अनेक लोगों को सुना-पढ़ा जाता है| ‘चिटगाँव’ ने आँखों में अंगुली घुसेड़ कर दिखा दिया है कि चटग्राम युवक-विद्रोह में भाग लेने वाले अधिकांश किशोर स्कूल में पढ़ने-लिखने वाले विद्यार्थी ही थे| झुन्कू के सामने भविष्य में विलायत जाकर वकालत पढ़ने और अपने ‘केरियर’ को बनाने का सुनहरा अवसर था, तब उसने उस दिन क्यों जीवन-मृत्यु के प्रश्न को पाँव की धूल बना डाला ? प्रीतिलता वाद्येदार ने  अपना जीवन होम क्यों किया ?

क्या सिर्फ सुबोध रॉय, प्रीतिलता वाद्येदार वगैरह ? नहीं | भगत सिंह और उनके सह-योद्धाओं ने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सांगठनिक स्तर पर जितने भी कार्य किये उनमे स्कूली छात्र-छात्राओं को राजनीतिक रूप से सचेतन बनाने का किया गया प्रयत्न सबसे महत्वपूर्ण कार्य था|  भगत सिंह की डायरी का अंश पढ़ें- “लोग सिर्फ अपने बच्चों की जीवन रक्षा के बारे में सोचते हैं|…उसे जीना सिखाओ,बजाय मौत से बचने के|जिंदगी सांस लेना नहीं,बल्कि सक्रियता है|….जिंदगी जिए गए दिनों की गिनती नहीं,बल्कि जीवन का तीव्र बोध है|…हो सकता है कम उम्र में मर कर भी वह ज्यादा जी ले” | ‘नवजवान भारत सभा’ के प्रयत्न से स्कूली छात्रों को लेकर ‘बाल भारत सभा’ का गठन हुआ, जिसमे 12 से 16 वर्ष तक की आयु के विद्यार्थियों को सदस्य बनाने का प्रावधान रखा गया , और ‘बाल स्टुडेंट्स यूनियन’ का गठन हुआ| लाला लाजपत राय के पोते बलदेव राज ‘बाल स्टुडेंट्स यूनियन’ के महासचिव थे| बाल भारत सभा की अमृतसर शाखा के सभापति थे 11 वर्षीय कनेचंद और इसी आयु में उन्हें 3 महीने का कारावास का दंड भुगता| और एक संगठक थे महात्मा कुशल चंद के पुत्र ‘यश’ जो बाद में उर्दू दैनिक ‘मिलाद’ के संपादक बने| उनके विरुद्ध ‘कांग्रेस’ और ‘नवजवान भारत सभा’ की लाहौर शाखा की सहायता करने का अभियोग था| उस समय उनकी आयु थी 10 वर्ष| रिकॉर्ड गवाह है कि उस समय 15 वर्ष से कम आयु के नाबालिगों की संख्या 1192  थी जिन्हें राजनीतिक क्रियाकलापों के लिए अपराधी घोषित किया गया| इनमे पंजाब के 189 नाबालिग और बंगाल के 739 नाबालिग शामिल थे|

इसके अलावा 1942 में भारत छोडो आंदोलन के समय गांधी जी ने भी विद्यार्थियों का आह्वान करते हुए कहा था-“ Education can wait, swaraj can not.”

चिटगाँव फिल्म के अंतिम दृश्यों में युवक सुबोध रॉय अंडमान से कालेपानी की सजा काट कर लौटते हैं और फिर शुरू करते हैं एक और आंदोलन- किसान आंदोलन, ज़मीन तैयार होती है तेभागा आंदोलन की| शुरू होता है कम्युनिष्ट सुबोध रॉय के जीवन का नया अध्याय – क्योंकि अंतिम मुलाकात में मास्टर दा सूर्यसेन ने उनसे कहा था – ‘याद रखना, हमारी लड़ाई जारी रहेगी|’ प्रसंगवश UNO की विकासशील राष्ट्रों की भुखमरी तालिका-2023 में शामिल 125 देशों में भारत का स्थान है 111 वां| हर क्षेत्र में क्रांति, जड़ता के विरुद्ध चेतना का विस्फ़ोट, प्रगतिशील विचारों का प्रवाह देश और जनता के लिए एक जरुरी तत्व है।

इस प्रकार भगतसिंह के विचारों से प्रेरित होकर , भगतसिंह और उनके दल के सक्रिय प्रयासों से अंडमान में कैदी क्रांतिकारियों का एक बड़ा अंश डॉ. नारायण रॉय ( कलकत्ता के मानिकतल्ला  निवासी) और उनके साथियों के प्रयत्नों से कम्युनिष्ट विचारधारा में अनुप्राणित हुआ जिसने बाद में देश के कम्युनिष्ट आंदोलन में अपना योगदान दिया| इस प्रकार सुबोध रॉय आदि साम्राज्यवाद-विरोधी स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारियों के साथ इस देश के कम्युनिष्ट आंदोलन के जन्म का प्रत्यक्ष आधार तैयार हुआ|

इसीलिए देश स्वाधीन होने के बाद भी सुबोध रॉय, गणेश घोष, सुकुमार सेनगुप्त, अमृतेंदु मुखर्जी, सुधांशु दासगुप्त आदि का संघर्ष समाप्त नहीं हुआ, और उन्हें बार-बार जेल जाना पड़ा| स्वाधीन देश के नागरिक होने के बावजूद उन्हें पुलिस के जुल्म सहने पड़े, क्योंकि वे आम आदमी के हितों के लिए लड़ने वाले थे, कम्युनिष्ट थे | साधारण देशवासियों ने उन्हें अपने हृदय में बसाया| याद आती है आदरणीय जनकवि श्री केदार नाथ अग्रवाल की कविता-पंक्तियाँ:

‘जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है /तूफानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है /जिसने सोने को खोदा, लोहा मोड़ा है /जो रवि के रथ का घोड़ा है /वह जन मारे नहीं मरेगा /नहीं मरेगा’|

और इसी के साथ याद आती है आदरणीय आत्मीय कवि श्री ध्रुवदेव मिश्र ‘पाषाण’ की चिंता-

‘सत्ता-आकांक्षा/ और/शोषण उत्पीड़न की/ माहानाशी छाया में/ मानवता की रक्षा का /संकल्पित स्वरवाहक/आहत है/भावी की चिंता से’|

बुलंद आवाज़ में दोहराते रहें – इन्कलाब जिंदाबाद |

आज 23 मार्च शहीद दिवस पर शहीद ए आज़म भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव सहित तमाम क्रांतिकारियों को सैल्यूट, उनके विचार आज भी मशाल बनकर प्रेरणा देते हैं। शबे इन्तिज़ार आखिर, कभी होगी मुख्तसर भी-  जन-हित संघर्ष की मशाल सदा रोशन रहे |

शहीद यादगार समिति

(मेंबर, स्टेट कमिटी, पश्चिम बंगाल)