दत्तोपन्त ठेंगड़ी शोध संस्थान के दक्षता निर्माण कार्यक्रम में सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडी चेन्नई के निदेशक ने किया संवाद

भोपाल, 01 मई । अंग्रेजों के शासन से पहले के भारत में प्रत्येक गांव स्वशासी था। गांव में सब प्रकार की व्यवस्थाएं और सेवाएं थीं। प्रत्येक गांव समृद्ध था। यह विचार सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडी चेन्नई के निदेशक पद्म श्री डॉ. जतिंदर कुमार बजाज ने मद्रास के दो गांवों उल्लावूर एवं कुण्ड्रत्तूर की केस स्टडी को सामने रखकर व्यक्त किए। डॉ. बजाज भोपाल के दत्तोपन्त ठेंगड़ी शोध संस्थान द्वारा आयोजित और आईसीएसएसआर द्वारा प्रायोजित युवा सामाजिक विज्ञान संकाय के लिए दो सप्ताह के दक्षता निर्माण कार्यक्रम में गुरुवार को ‘अंग्रेजों से पहले की भारतीय नीति’ और ‘भारतीय परिवेश में समाज वैज्ञानिक शोध’ विषयों पर युवा प्राध्यापकों को संबोधित कर रहे थे।

डॉ. बजाज ने कहा कि एक लंबी औपनिवेशिक दासता के कारण हमें अपनी वर्तमान चुनौतियों के समाधान में भारतीय साहित्य पर विश्वास नहीं हो पाता है। हमारे साहित्य में वर्तमान की चुनौतियों के समाधान के सूत्र भी मिलते हैं। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों से पहले का भारत कैसा था, यह जानना है तो उसका एक प्रमुख स्रोत हमारा सभ्यागत साहित्य है। दूसरा स्रोत धर्मपालजी का साहित्य। उन्होंने 1767-1774 के मध्य अंग्रेजों द्वारा किए गए मद्रास के आसपास के लगभग 2000 ग्रामों के एक बहुत विस्तृत सर्वेक्षण का गहन अध्ययन किया है। इस सर्वेक्षण में अंग्रेजों ने यह जानने का प्रयत्न किया कि जिन भारतीयों पर हम शासन करने जा रहे हैं, उनकी व्यवस्थाएं कैसे संचालित होती हैं।

सर्वेक्षण में प्राप्त डेटा के आधार पर अंग्रेजों ने जो रिपोर्ट लिखी, वह हमें आश्चर्यचकित करती है। अंग्रेज लिख रहे थे कि भारत की व्यवस्था धर्म (कर्तव्य) आधारित है, जो न्याय और समता के आधार पर संचालित होती है। अंग्रेजों ने माना कि प्रत्येक गांव अपने आप में स्वतंत्र इकाई है। प्रत्येक गांव का इतिहास है। इस संदर्भ में बड़ी संख्या में यहां से शिलालेख मिलते हैं। ये गांव समृद्ध भी हैं। ये सभी गांव स्वशासी हैं। विभिन्न व्यवस्थाओं को चलाने के लिए उत्पादन में से एक निश्चित अंश दिया जाता था। अंग्रेज कलेक्टर यह देखकर हैरान रह गया कि यह काम तो राज्य के हिस्से में हैं, इन्हें लोग क्यों कर रहे हैं।

पद्मश्री से सम्मानित समाज विज्ञानी डॉ. बजाज ने बताया कि मद्रास के दो गांवों-उल्लावूर एवं कुंड्रातूर में हमने भी काम किया। हमें सभी प्रकार की व्यवस्थाओं का उल्लेख यहां मिलता है। गांव में व्यापारी, वैद्य, संगीतकार, कलाकार, किसान, कारीगर, सुनार, सुरक्षा बल सहित सभी व्यवसाय और सेवाओं को उपलब्ध कराने वाले लोग हैं। उल्लावूर में प्रति व्यक्ति उत्पादन ढाई टन प्रतिवर्ष था। आज के उत्पादन से यह कई गुना अधिक है। उल्लावूर के मुकाबले कुण्ड्रत्तूर में तो कृषि गौण थी। यह गांव प्रमुखतः संस्कृति एवं विद्वत्ता का केन्द्र था। यहाँ के 471 घरों में से 116 घर बुनकरों के थे। इसी प्रकार अन्य व्यवसाय से जुड़े लोग भी यहां थे।

अपने व्याख्यान में डॉ. बजाज ने कहा कि भारतीय परिवेश में समाज विज्ञान के शोध में हम शास्त्र और लोक को देखते हैं। उन्होंने कहा कि शास्त्र और लोक पृथक नहीं होते हैं। लोक में हम वही देखते हैं, जो शास्त्र हमें सिखाते हैं। समाज विज्ञान में हम पाश्चात्य शास्त्र के आधार पर भी भारतीय परिवेश में शोध कर रहे हैं। पाश्चात्य के शास्त्र (अवधारणाएं) वहां की सभ्यतागत धरातल पर बने हैं। इसलिए जब आपका शास्त्र (अवधारणा) ठीक नहीं है, तो आपका शोध परिणाम भी ठीक नहीं आएगा। उन्होंने कहा कि पाश्चात्य जगत का समाज विज्ञानी अपने परिवेश, लोक-संस्कृति-समाज को बहुत अच्छे से जानता है। उसका अध्ययन करता है। लेकिन भारत का समाज विज्ञानी सामान्यतौर पर अपनी ज्ञान-परम्परा के बारे में अनजान ही रहता है।

इस कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि के रूप में एनआईटीटीटीआर के निदेशक डॉ. चन्द्र चारु त्रिपाठी, दक्षता निर्माण कार्यक्रम की संयोजक प्रो. अल्पना त्रिवेदी और दत्तोपन्त ठेंगड़ी शोध संस्थान के निदेशक डॉ. मुकेश मिश्रा भी उपस्थित रहे। संस्थान के निदेशक डॉ मुकेश कुमार मिश्रा ने अतिथि परिचय दिया और कार्यक्रम के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला।————