493 वर्षों बाद राजतिलक की रस्म का साक्षी बना फतह प्रकाश महल

रक्त से राजतिलक होते ही गूंज उठे भगवान एकलिंग नाथ के जयकारे

वांक्ये और ढोल-मांदल की हर्षध्वनि के बीच हुई पुष्पवर्षा

लोक गायकों ने मेवाड़ी में गाया मंगलाचार

कौशल मूंदड़ा

उदयपुर, 26 नवम्बर। वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के वंशज उदयपुर के पूर्व महाराणा और पूर्व सांसद स्व. महेंद्र सिंह मेवाड़ के निधन के बाद उनके पुत्र नाथद्वारा से विधायक विश्वराज सिंह मेवाड़ अब महाराज कुमार से ‘महाराणा ऑफ मेवाड़’ हो गए। उनका ऐतिहासिक राजतिलक समारोह चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित फतह प्रकाश पैलेस के प्रांगण में हुआ। परंपरा अनुसार सलूम्बर के रावत देवव्रत सिंह ने तलवार से अंगूठे को चीरा लगाकर रक्त से तिलक किया। आज का दिन इतिहास में इस तथ्य के साथ दर्ज हो गया कि 493 साल बाद चित्तौड़गढ़ दुर्ग स्थित फतह प्रकाश महल पुन: राजतिलक समारोह का साक्षी बना। महाराणा उदयसिंह द्वारा मेवाड़ की राजधानी उदयपुर ले जाने के बाद आजाद भारत के चित्तौड़गढ़ में पूर्व राजपरिवार के इस आयोजन ने इस बात का संकेत दिया कि लम्बे समय तक मेवाड़ की राजधानी रहे चित्तौड़गढ़ को अब पुन: यह गौरव प्राप्त हो गया है।

भारत गणराज्य में रियासतों के विलीनीकरण के बाद राजव्यवस्था खत्म होकर लोकतंत्र में तब्दील हो गई, लेकिन क्षेत्रीय मान्यताओं, सांस्कृतिक और भावनात्मक परम्पराओं और राजपरिवार के प्रति लोगों का जुड़ाव फतह प्रकाश पैलेस के प्रांगण में दिखाई दिया। जैसे ही रक्त से राजतिलक हुआ, पूरा प्रांगण भगवान एकलिंगनाथ के जयकारों से गूंज उठा। समारोह में मौजूद जनमैदिनी ने वीर शिरामणि महाराणा प्रताप और नए महाराणा के जयकारे भी लगाए। पारम्परिक वाद्य वांक्या और ढोल-मांदल की हर्षध्वनि के बीच चहुंओर से पुष्पवर्षा हुई। वेदपाठी बालकों ने वैदिक ऋचाओं का सस्वर पाठ किया तो लोक गायकों ने मेवाड़ी में मंगलाचार गाया। 21 तोपों की सलामी भी दी गई। इस अवसर के साक्षी बनने के लिए न केवल मेवाड़ क्षेत्र यानी दक्षिणी राजस्थान, बल्कि देश के विभिन्न कोनों से भी पूर्व राजपरिवारों के सदस्य चित्तौड़गढ़ पहुंचे।

सबसे पहले नजराना पुत्र का

-राजतिलक के उपरांत सबसे पहला नजराना विश्वराज के पुत्र देवजादित्य ने पेश किया। राजपरिवार से जुड़े इतिहासविद डॉ. विवेक भटनागर ने बताया कि पुत्र द्वारा सबसे पहले नजराना दिए जाने की परम्परा पूर्व समय में सम्राट के राज्याभिषेक से जुड़ी हुई है। तत्कालीन महाराणा सांगा उस समय सर्वमान्य सम्राट थे, उनके बाद कोई हिन्दू सम्राट नहीं था, इसलिए मेवाड़ के महाराणाओं को ही उत्तराधिकार में सम्राट का उत्तराधिकार मिलता रहा। इसी कारण इनकी पदवी के साथ ‘आर्य कमल कुल दिवाकर’ लिखा जाता रहा है। इसी परम्परा में अनुसार सबसे पहले नजराना ज्येष्ठ पुत्र पेश करता है, जबकि अन्य राजघरानों में पुत्र दूसरे क्रम पर नजराना पेश करते हैं। अब देवजादित्य भी पूर्व राजपरिवार की परम्परानुसार महाराज कुमार कहलाएंगे। उनके उपरांत 16 उमराव, बत्तीसा सरदार, 84 गोल के सरदारों ने नजराना (उपहार) भी पेश किया। 16 उमराव में तीन बड़ी सादड़ी, देलवाड़ा, गोगुन्दा के झाला परिवार, तीन कोठारिया, बेदला, पारसोली के चौहान परिवार, सलूम्बर, देवगढ़, आमेट, बेगूं के चार चुण्डावत परिवार, भीण्डर, बांसी के दो शक्तावत परिवार, बदनोर, घाणेराव के दो राठौड़ परिवार, कानोड़ के सारंगदेवोत तथा बिजौलिया के पंवार शामिल हैं। राजतिलक के साथ ही वहां पूर्व राजव्यवस्था के अनुरूप दरबार भी लगा।

मेवाड़ के 77वें दीवान

इस दस्तूर के साथ ही विश्वराज सिंह मेवाड़ परम्परानुसार भगवान एकलिंगनाथजी के 77वें दीवान भी हो गए। उल्लेखनीय है कि भगवान एकलिंगनाथजी को मेवाड़ का वास्तविक राजा माना जाता है और उनके दीवान के रूप में महाराणा प्रजापालन का कर्तव्य निर्वहन करते हैं।

मंदिरों से आई ‘आश्का’

राजतिलक के दौरान ‘आश्का’ (भगवान को चढ़ाए गए प्रसादी पुष्प व अन्य सामग्री) भी विश्वराज सिंह मेवाड़ को आशीर्वाद स्वरूप प्रदान किए गए। कैलाशपुरी स्थित भगवान एकलिंगनाथजी मंदिर, कांकरोली स्थित द्वारिकाधीश मंदिर और चारभुजा मंदिर से पुजारी व प्रतिनिधि आश्का और धूप की भभूत लेकर पहुंचे।

जनप्रतिनिधि भी बने साक्षी

-दस्तूर समारोह में चित्तौड़गढ़ सांसद सीपी जोशी, विधायक चंद्रभान सिंह आक्या सहित कई स्थानीय जनप्रतिनिधि और गणमान्य शामिल हुए।

बड़ी संख्या में पहुंचा जनजाति समाज

-वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के मुगलों से संघर्ष के साथी रहे वनवासी जनजाति समाज के लोग भी बड़ी संख्या में समारोह में शामिल हुए। उन्होंने न केवल थाली-मांदल से अपना हर्ष व्यक्त किया, बल्कि पुष्प वर्षा से नए महाराणा का अभिनंदन किया।

भोजन में परम्परागत मीठी मैथी

-आयोजन में बड़ी संख्या में आए समाजजनों के लिए परम्परानुसार भोजन की व्यवस्था रही। खास बात यह रही कि चने की दाल, पूड़ी, सब्जी, बेसन की चक्की के साथ परम्परानुसार मैथी दाना की मीठी सब्जी बनी।

उमड़ी भीड़, लगा जाम

-चित्तौड़गढ़ दुर्ग स्थित फतह प्रकाश पैलेस के प्रांगण में लगभग 10 हजार लोगों के बैठने की व्यवस्था की गई। सुरक्षा के लिए चित्तौड़गढ़ पुलिस ने कड़े इंतजाम किए। खासतौर पर यातायात को संभालने के लिए स्वयंसेवक भी लगाए गए। हालांकि, आयोजन में शामिल होने वाली गाड़ियों के लिए विशेष स्टीकर वितरित कर दिए गए थे, जिससे उन्हीं गाड़ियों को आयोजन स्थल की पार्किंग में प्रवेश दिया गया। इसके बावजूद, बड़ी संख्या में पहुंच रहे पैदल और दुपहिया-तिपहिया वाहनों से कई बार यातायात अटका।

जो दृढ़ राखे धर्म को, ताहि राखे करतार

-राजतिलक दस्तूर के बाद महाराणा विश्वराज सिंह ने मेवाड़ के राजमंत्र ‘जो दृढ़ राखे धर्म को, ताहि राखे करतार’ को सभी ग्रंथों का सार बताते हुए कहा, ‘आज आप सभी की भावनाओं और मेरे मन की भावनाओं का वर्णन शब्दों में किया जाना संभव नहीं है। करीब 500 साल बाद चित्तौड़गढ़ का इतिहास बदला है और यहां पर यह दस्तूर हुआ है। मेवाड़ की परम्परा का मान आपको और मुझे साथ मिलकर रखना है। मेवाड़ के मान के लिए जो भी संघर्ष है, वह आप सभी के साथ से ही सफल होगा।‘ उन्होंने अपना संबोधन मेवाड़ी में दिया।

धूणी का महत्व

-प्रयागगिरी महाराज की धूणी का महत्व इसलिए है कि प्रयागगिरी महाराज ने ही महाराणा उदयसिंह को उदयपुर बसाने का स्थान सुझाया था।

मेवाड़ का सेंगोल, चांदी की छड़ी

-सिटी पैलेस में दर्शन के बाद एकलिंगजी मंदिर में ‘रंग दस्तूर’ की रस्म भी होती है, जिसमें नए महाराणा को चांदी की छड़ी कंधे पर धारण कराई जाती है। इसे एक तरह से ‘मेवाड़ का सेंगोल’ कहा जा सकता है। इसे एकलिंगजी के दीवान के रूप में उनके कर्तव्यों का प्रतीक माना जाता है।

मेवाड़ की राजधानी का पुन: स्थानांतरण

-इतिहास में रियासतकाल के दौरान चित्तौड़गढ़ लम्बे समय तक मेवाड़ की प्रमुख राजधानी रहा है। परिस्थितिवश महाराणा उदयसिंह ने राजधानी को उदयपुर में बनाया था। ब्रिटिश शासन से देश की स्वतंत्रता और रियासतों के विलीनीकरण के साथ ही सम्पूर्ण मेवाड़ भी भारत गणराज्य का हिस्सा बना। इसके बाद भी दिवंगत पूर्व महाराणा महेन्द्र सिंह मेवाड़ का दस्तूर उदयपुर के ही सिटी पैलेस के माणक चौक में हुआ था। फतह प्रकाश महल में 493 साल बाद सोमवार 25 नवम्बर 2024 को राजपरिवार के उत्तराधिकार का दस्तूर कार्यक्रम हुआ। राजतिलक दस्तूर के बाद स्वयं विश्वराज सिंह मेवाड़ ने अपने संबोधन में कहा कि 500 साल बाद यहां फिर से ऐसा अवसर आया है, इस पर उनके पास कहने के लिए शब्द नहीं हैं। इस पर इतिहासविदों का कहना है कि संभवत: अब इतिहास के पन्नों में मेवाड़ की राजधानी का पुन: चित्तौड़गढ़ में स्थानांतरण का जिक्र जुड़ेगा। इस संदर्भ में इतिहासविदों का कहना है कि मेवाड़ की सांस्कृतिक, पारम्परिक और भावनात्मक विरासत यही कहती है। मेवाड़ की जनता की भावनाएं आज भी पूर्व राजपरिवार के प्रति गरिमापूर्ण है।