कोलकाता, 9 अगस्त । मां भारती की आजादी का माह चल रहा है। हमारी अमर भूमि की स्वतंत्रता के लिए लाखों क्रांतिकारियों ने हंसते-हंसते जीवन सुमन समर्पित कर दिया था तब हमें आजादी मिली। कई क्रांतिकारियों के बारे में तो पूरी दुनिया जानती है लेकिन कई ऐसे गुमनाम वीर रहे हैं जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ घोर युद्ध किया और अपना सब कुछ समर्पित कर दिया लेकिन इतिहास में उन्हें जगह नहीं मिली। नई पीढ़ी उनसे अनभिज्ञ है। आज हम आपको वतन की आजादी के लिए उम्र के आखिरी पड़ाव में भी एक ऐसी बूढ़ी महिला की बहादुरी के बारे में बताते हैं, जिनके किस्से रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं।

29 सितंबर 1942 की तारीख। मेदिनीपुर के तमलुक पुलिस मुख्यालय पर भारत छोड़ो आंदोलन के आह्वान के तहत तिरंगा फहराने के लिए 6000 स्वयंसेवकों की भीड़ आगे बढ़ रही थी। थोड़ी ही दूरी पर अंग्रेजी फौज ने जुलूस को चारों तरफ से घेर कर बंदूकें तान दी। भीड़ में अफरा तफरी मच गई। लोग इधर-उधर भाग रहे थे कि तभी एक 72 साल की बूढ़ी तिरंगा लहराते हुए सबसे आगे आईं। उन्होंने कहा, “मैं लहराऊंगी तिरंगा, मुझे कोई नहीं रोक सकता।”

इस बूढ़ी सबला का हौसला देख भीड़ का उत्साह सातवें आसमान पर था। वह आगे बढ़ने लगीं और पीछे पीछे लोगों का हुजूम भी वंदे मातरम का उद्घोष करता हुआ बढ़ चला। बर्बर गोरों की बंदूके गरज उठीं। 72 साल की उस फौलादी जिगर वाली मां के शरीर में 3 गोलियां मारी। हर गोली पर उन्होंने वंदे मातरम का उद्घोष किया और लहूलुहान होकर मां भारती पर गिर पड़ीं लेकिन हाथ से लहराता हुआ तिरंगा नहीं छूटा। इसके बाद भीड़ ने फायरिंग कर रहे पुलिसकर्मियों को रौंदते हुए पुलिस मुख्यालय पर कब्जा कर तिरंगा लहरा दिया। उस बूढ़ी वीरांगना का नाम था मातंगिनी हाजरा।

कुछ ऐसा ही इतिहास है मां भारती का। इस उम्र की बूढ़ी और 13-14 साल के नोनीहालों ने अंग्रेजों के दांत खट्टे करते हुए मां भारती के लिए सर्वोच्च बलिदान दे दिया था।

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लोग कहते थे बूढ़ी गांधी

खास बात यह है कि अत्यंत निर्धन परिवार में जन्मी मातंगिनी का विवाह महज 12 साल की आयु में 64 साल के विदुर से हुआ था। महज 18 साल में विधवा हो गई थीं और सौतेले बच्चों ने घर से निकाल दिया था। उसके बाद उन्होंने अपना पूरा जीवन मातृभूमि को समर्पित कर दिया। अनपढ़ मातंगिनी हाजरा पर देशभक्ति का रंग इस कदर चढ़ा था कि उन्होंने चरखा चलाकर सूत काटना और खादी पहनना शुरू कर दिया था। इसलिए लोग उन्हें बूढ़ी गांधी के नाम से पुकारते थे।

उनका जन्म 19 अक्टूबर, 1870 को पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) मिदनापुर जिले के होगला गांव में अत्यन्त निर्धन परिवार में हुआ था। उनके पिता किसान थे। उन्होंने किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त नहीं की। गरीबी के कारण 12 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह ग्राम अलीनान के 62 वर्षीय विधुर त्रिलोचन हाजरा से कर दिया गया। इसके बाद भी दुर्भाग्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा।

18 साल की उम्र में हो गई थीं निसंतान विधवा

18 साल की उम्र में वह निसंतान ही विधवा हो गयीं। सौतेले बच्चों ने घर से निकाल दिया। मातंगिनी मिदनापुर के तामलुक में अलग झोपड़ी में रहकर मजदूरी से जीवनयापन करने लगीं। ग्रामीणों के दुख-सुख में सहभागी रहने के कारण वे पूरे गांव में मां के समान पूज्यनीय हो गयीं। वो महिला जिसे जिंदगी के 62 साल तक तो ये भी नहीं पता था कि स्वतंत्रता आंदोलन है क्या? उसकी अपने गांव और घर से बाहर की जिंदगी बड़ी सीमित थी।

ऐसे ही अकेले रहते रहते, उनको 44 साल बीत गए। लोगों के घरों में मेहनत मजदूरी करतीं और उसी से अपना घर चलातीं। धीरे-धीरे लोगों से देश की हालत और गुलामी के बारे में जानने लगीं। घर से बाहर निकलीं तो उन्हें अंग्रेजी हुकूमत का अत्याचार दिखा। धीरे-धीरे वो लोगों से महात्मा गांधी और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में भी जानने लगीं। 1932 में एक दिन उनकी झोंपड़ी के बाहर से सविनय अवज्ञा आंदोलन में एक विरोध यात्रा निकली। मातंगिनी भी उस यात्रा में शामिल हो गईं। उन्होंने नमक विरोधी कानून को नमक बनाकर तोड़ा। उससे उनकी गिरफ्तार हुई। अंग्रेजों ने उनको सजा सुनाई। उनको कई किमी तक नंगे पैर चलने की सजा दी गई।

उसके बाद मातंगिनी हजारा ने चौकीदारी कर रोको प्रदर्शन में हिस्सा लिया। विरोध प्रदर्शन में वह काला झंडा लेकर चलने लगीं। बदले में छह महीने की सजा सुनाई गई। जेल से बाहर आकर उन्होंने एक चरखा ले लिया और खादी पहनने लगीं। लोग उन्हें ‘बूढ़ी गांधी’ के नाम से पुकारने लगे। 1942 में महात्मा गांधी ने देश में अंग्रेजों के खिलाफ ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की बिगुल बजाया। ऐसे में गांधी जी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया।  —–

72 वर्ष की उम्र में मातंगिनी हाजरा ने तामलुक में भारत छोड़ो आंदोलन की कमान संभाली

29 सितम्बर 1942 का दिन था। तामलुक में छह हजार से अधिक लोगों का अंग्रेजों के विरोध जुलूस निकला था। इस आंदोलन में ज्यादातर महिलाएं शामिल थीं। वह जुलूस तामलुक थाने की तरफ बढ़ने लगी। थाने पर फहर रहे ब्रिटिश झंडे को उतार कर तिरंगा लहराना था। ऐसे में तामलुक पुलिस ने चेतावनी दी, लोग पीछे हटने लगे। मातंगिनी हाजरा बीच से निकलीं और सबके आगे आ गईं। उनके दाएं हाथ में तिरंगा था। उन्होंने कहा ‘मैं फहराऊंगी तिरंगा, आज कोई मुझे कोई नहीं रोक सकता’। वंदमातरम के उद्घोष के साथ वो आगे बढ़ीं। पुलिस की चेतावनी पर भी वह नहीं रुकीं तो एक गोली उनके दाएं हाथ पर मारी गई। वह घायल हो गईं, लेकिन तिरंगे को नहीं गिरने दिया।

घायल मातिंगिनी ने तिरंगा दूसरे हाथ में ले लिया और फिर आगे बढ़ने लगीं। 72 साल की मातंगिनी हाजरा ने पहली गोली लगते ही बोला ‘वंदेमातरम’। पुलिस ने फिर दूसरे हाथ पर भी गोली मारी, वो फिर बोलीं ‘वंदेमातरम’, लेकिन किसी तरह झंडे को संभाले रखा, गिरने नहीं दिया। वह लगातार वंदेमातरम बोलती रहीं, झंडा ऊंचा किए रहीं और थाने की तरफ बढ़ती रहीं। तब एक पुलिस आफिसर ने तीसरी गोली चलाई, सीधे उनके माथे पर। वो नीचे तो गिरीं, लेकिन तिरंगा जमीन पर नहीं गिरने दिया, अपने सीने पर रखा और जोर से फिर बोला- वंदे.. मातरम, भारत माता की जय। इसके बाद लोगों ने अंग्रेजी फौज को रौंदते हुए थाने पर कब्जा कर लिया और तिरंगा लहराकर स्वाधीनता की घोषणा की।

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कोलकाता में लगी थी मातंगिनी हाजरा की पहली मूर्ति

 

कोलकाता में रहने वाले बहुत कम लोगों को पता होगा कि दक्षिण कोलकाता का मशहूर हाजरा मोड़ इन्हीं के नाम पर है। यहां से कई आंदोलनों की शुरुआत आज भी होती है। इसका पूरा नाम मातंगिनी हाजरा मोड़ है और उस सड़क का नाम भी मातंगिनी हाजरा रोड है। धर्मतल्ला में उनकी विशाल प्रतिमा स्थापित की गई है। कोलकाता में स्थापित होने वाली किसी महिला की यह पहली प्रतिमा है। तमलुक में भी मातंगिनी हाजरा की विशालकाय प्रतिमा स्मारक के तौर पर स्थापित की गई है।